Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 198
________________ भगवान आचार्यदेव श्री जयसेन (षष्ठम् ) श्री दिगम्बर जिनधर्ममें भगवान ‘आचार्य जयसेन' नामक कई आचार्य हुए हैं। आचार्य जयसेन (षष्ठम्) आचार्य भावसेनके शिष्य थे; व आप ब्रह्मसेनके गुरु थे। आप लाडवागढ़ संघके आचार्य थे, क्योंकि आचार्य वीरसेनजीके गुरु आचार्य आर्यनन्दिका समय ई.स. ७७०-८२७ माना जाता है व आप उनके पश्चात्के आचार्य हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी आता है, कि आप आचार्य धर्मसेनके शिष्य शान्तिषेण, आचार्य शान्तिषेणके शिष्य गोपसेन उनके शिष्य आचार्य भावसेन तथा उनके शिष्य ये आचार्य जयसेनजी हुए हैं। आपने अपने वंशको योगीन्द्रवंश कहा है। आचार्य अमृतचन्द्रदेवका पुरुषार्थसिद्धिउपाय व आचार्य सोमदेवजीका उपासकाध्ययनका आपने, अपने ग्रंथमें भरपूर उपयोग किया है। आपके ग्रंथमें, आचार्य रामसेन कृत 'तत्त्वानुशासन'का भी एक श्लोक आया है। आपने 'धर्मरत्नाकर'की रचना ई.सन् ९९८में की थी। इससे प्रतीत होता है, कि आप आचार्य रामसेनके सम-समयवर्ती रहे होंगे। यह रचना 'तत्त्वज्ञान से भरपूर है, जैसा इस रचनाका नाम है, उसी भांति इसमें 'धर्मके रत्नोंका समुद्र' ही न हो-ऐसा प्रतीत होता है। आपका ग्रंथ धर्मरत्नाकर ई.स. ९९८में हुआ होनेसे व आचार्य रामसेनजीके सम-समयवर्ती होनेसे आप ईसुकी १०वीं-११वीं शताब्दीके आचार्य होंगे। आचार्य श्री जयसेनजी (षष्टम्)को कोटि कोटि वंदन। ध्यानस्थ आचार्य जयसेनजी (षष्ठम्) (181)

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