Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव
श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीदेव
ई.स. ८१६ के आसपास आचार्यदेव वीरसेनस्वामी व जिनसेनस्वामी द्वारा आत्मार्थीयोंको धवला व जयधवला शास्त्र प्राप्त हुए थे। तबसे सिद्धान्ताभ्यासी आत्मार्थी जीव उन ग्रंथोंको ही जीवनाधार बनाकर अपना साधनामय जीवन रचते थे ।
शनैः शनैः जीवोंके क्षयोपशममें मंदता आ जानेसे उसके बाद करीब २०० वर्ष अन्तर्गत तो ये ग्रंथ मुश्किलसे समझमें आने लगे। तब आत्मार्थी सिद्धान्ताभ्यासीको सरल सिद्धान्तग्रंथकी जरूरत महसूस हुई। जिन्होंने अनेक युद्ध अपने राजाको जिताये थे, – ऐसे गंगनरेश रायमल्लदेवके प्रधानमन्त्री, प्रधान सचिव (सेक्रेटरी) व मुख्य सेनापति - चामुण्डरायजी अपने गुरु श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीसे पूछे प्रश्न पर आत्मार्थी जीवोंको सरलतया समझमें आ सके, ऐसे सिद्धान्तग्रन्थ प्रकाशमें आये ।
कहा जाता है, कि एक समय आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीजी धवला शास्त्रका स्वाध्याय कर रहे थे; उस समय चामुण्डरायजी भी वहाँ दर्शनार्थ आये। आचार्यदेवका सहज ध्यान प्रधानमंत्रीकी ओर गया। प्रधानमंत्री नमस्कार कर, तीन प्रदक्षिणा दे, वहीं बैठ गये और प्रभुसे कहने लगे ।
चामुण्डराय : प्रभु ! हमें भी कुछ आत्महितका बोध दीजिये ।
आचार्यदेवने : १४ गुणस्थान, १४ मार्गणास्थान आदि द्वारा संक्षिप्तमें जीवका स्वरूप व उससे मुक्त होनेका स्वरूप बताया ।
चामुण्डराय : भगवान् ! हमें निरन्तर इस बातका स्मरण रहे, अतः क्या करना
चाहिए ?
आचार्यदेवने (करुणासे) : देव - शास्त्र - गुरुकी आराधना व ( धवलाजीकी ओर इशारा करते हुए) इसका स्वाध्याय करना चाहिए।
चामुण्डराय : प्रभु ! यह तो बहुत ही कठिन है, इसका संक्षिप्त जैसा आपने (175)
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