Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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श्रीमद् भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव
श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेव आचार्य कुन्दकुन्दने ही आचार्य अमृतचन्द्र के रूपमें अवतार लिया न हो! ऐसा लगता है। 'कवीन्द्र' विशेषणका प्रयोग किया है। उनके इस ग्रन्थमें उनके कवीन्द्रत्वका स्पष्ट दर्शन पद-पदपर होता है। काव्यशास्त्रकी सब विशेषताएँ उनकी इस कृतिमें है। यों तो उनकी उपलब्ध रचनाएँ ही उनके वैदुष्य और रचनाचातुर्यकी गरिमाके लिए पर्याप्त थी, किन्तु 'लघुतत्त्वस्फोट'ने तो उनकी उस गरिमापर कलशारोहण कर दिया है।
जैनतत्त्वकी जिस निधिने आचार्य अमृतचन्द्रको सर्वाधिक आकृष्ट किया है, वह है अनेकान्त और ज्ञानज्योति। उन्होंने अपनी रचनाओंके प्रारम्भमें किसी तीर्थंकर आदि व्यक्तिको नमस्कार न करके आत्मज्योति और अनेकान्तको ही नमस्कार किया है। समयसारके प्रारम्भमें समयसारको नमस्कार करके अनेकान्तमयी मूर्तिका स्मरण किया है। प्रवचनसारकी टीकाके प्रारम्भमें ज्ञानानंदस्वरूप आत्माको नमस्कार करके अनेकान्तमय तेजका जयकार किया है। पञ्चास्तिकायकी टीकामें उक्त प्रकारसे परमात्माको नमस्कार करके स्यात्कारजीविता जैनी सिद्धान्त पद्धतिका जयकार किया है। पुरुषार्थसिद्धयुपायके प्रारम्भमें परमज्योतिका जयकार करके अनेकान्तको नमस्कार किया है। तत्त्वार्थसारके प्रारम्भमें भी जिनेशकी ज्ञानज्योतिका जयकार है। अनेकान्त सिद्धान्तके प्रति इतनी अधिक भक्तिकी अभिव्यक्ति तो दर्शनशास्त्रके प्रतिष्ठाताओंकी कृतियोंमें भी नहीं मिलती।
आपकी टीकाओं जैसी टीका अब तक अन्य किसी जैनग्रंथकी नहीं लिखि गई है। आपकी टीकाओंके पाठक आपकी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको न्यायसे सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, जिनशासनका अत्यन्त गहरा ज्ञान, निश्चय-व्यवहारका संधिबद्ध निरूपण करनेकी विरल शक्ति और उत्तम काव्यशक्तिका पूरा ख्याल आ जाता
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