Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 176
________________ यह फल चाहता हूँ, कि मेरी परिणति रागादिसे रहित होकर शुद्ध हो, मुझे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हो।' कितनी पवित्र भावना है ! उनकी यह भावना अवश्य ही समयसारके पठन, चिन्तन और मननका परिणाम हैं। उन्होंने अवश्य ही आचार्य कुन्दकुन्दजीके ग्रन्थोंका तलस्पर्शी अध्ययन, मनन और चिन्तन किया था और उससे उन्हें जो आत्मबोध हुआ था-उससे उनकी अन्तर्दृष्टि अवश्य ही सविशेष खुल गई होगी, जिसके फलस्वरूप ही उन्हें आचार्य कुन्दकुन्दजीके ग्रन्थरत्नोंकी इतनी सुन्दर समृद्ध टीकाएँ रचनेकी अन्तःप्रेरणा हुई होगी। ये टीकाएँ भक्तकी भगवान्के प्रति कुसुमाञ्जलि जैसी है। 'पं० आशाधरजी'ने अपने ‘अनगारधर्मामृत'की टीकामें उनके नामके साथ 'ठक्कुर' शब्दका प्रयोग किया है। 'ठक्कुर' और 'ठाकुर' एकार्थवाची है। जैनेतरोंमें आज भी 'ठाकुर' शब्दका व्यवहार पाया जाता है। जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर। जैनाचार्यों में ऐसे भी आचार्य हुए हैं, जो जन्मसे जैन नहीं थे। जैसे आचार्य विद्यानंदजी, किन्तु उनकी कृतियाँ अनमोल हैं। आचार्य अमृतचन्द्रजी भी यदि ऐसे क्षत्रियकुलसे संबंधित ही हों तो कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि उनकी टीकाके शब्दोंमें भी यही शौर्य उभरा हुआ स्पष्ट प्रतीत होता है। जैसे आचार्य समन्तभद्रजीके आप्तमीमांसाको सुनकर आचार्य विद्यानन्दजी 'विद्यानन्द' (विद्या + आनन्द) बन गये, संभव है, उसी प्रकार समयसार आदिके अध्ययनने आचार्य अमृतचन्द्रजीको ‘अमृतचन्द्र' बना दिया हो। हमें तो उनके समयसारके तीसरे कलशमें इसीकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। 'समयसार'की टीका रचते हुए जो उनकी भावना थी, कि उसे उन्होंने तीसरे कलशमें व्यक्त किया है। प्रवचनसारकी टीकाके प्रारंभमें वे कहते हैं, कि परमानन्दरूपी अमृतको पीनेके इच्छुक जनोंके हितके लिये यह वृत्ति की जाती है। इस परसे ज्ञात होता है, कि समयसार की टीका उन्होंने स्वहित हेतु लिखी हो और प्रवचनसारकी टीका परमानन्दरूपी अमृतके पिपासुजनोके लिए लिखी हो। उनकी टीकाओंको पढ़कर कोई कल्पना कर सकता है, कि भगवान आचार्य कुन्दकुन्दने ही भगवान आचार्य अमृतचन्द्रके रूपमें अवतार लिया न हो! उनकी टीकाएँ मात्र शब्दार्थ व्याख्यारूप नहीं हैं, किन्तु प्रत्येक गाथासूत्रमें भरे हुए रहस्योंको उद्घाटित करती है। अतः उसे टीका न कहकर भाष्य कहना ही उचित होगा। (जिसमें सूत्रके अर्थके साथ उनके आधारसे उसका रहस्य भी कहा जाता है, उसे भाष्य कहते हैं।) आचार्य अमृतचन्द्रजीकी टीकाका यही रूप है। उनकी भाषा तो संस्कृत गद्यात्मक अति मनोहर है। शब्दोंका चयन अध्यात्मके सर्वथा अनुरूप है। इस प्रकारकी अनुप्रासात्मक श्रुतिमधुर शब्दावली अन्य जैन टीकाओंमें नहीं पाई जाती। गद्य और पद्य दोनोंमें एकरूपता है। गद्यमें भी पद्यका आनन्द आता है। उनका मौलिक ग्रन्थ 'लघुतत्त्वस्फोट' के अन्तिम पद्यमें उन्होंने अपने नामके साथ (159)

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