Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
भगवान आचार्यदेव
श्री कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीदेव
सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञाता भगवान आचार्य कनकनंदि मूलतः सिद्धान्त - शास्त्रके मर्मज्ञ ऐसे देवेन्द्रनन्दिजीके शिष्य थे। तत्पश्चात् आप सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्यदेव इन्द्रनन्दिके शिष्य व भगवान नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीदेवके सहधर्मा थे। आप भी भगवान नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीदेव समान ही समादरणीय हैं।
वरइंददिगुरुणो पासे सोऊण सयल सिरिकणयदि गुरुणा, सत्ताणं
सिद्धतं ॥
समुद्वि ॥
अर्थ : आचार्योंमें श्रेष्ठ ऐसे श्री इन्द्रनंदि 'गुरु' के पास समस्त सिद्धान्तको सुनकर श्री कनकनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती गुरुने इस सत्त्वस्थानको सम्यक् रीतिसे कहा है ।
इस भांति उक्त गो. कर्मकाण्ड गा. ३९६ से यह अति स्पष्ट है, कि आप भी सिद्धान्त ग्रन्थोंके पारगामी थे। इस गाथामें आचार्य कनकनन्दिके पूर्व 'गुरु' शब्दका प्रयोग, यह सूचित करता है, कि आचार्य नेमिचन्द्रदेवने गोम्मटसार कर्मकाण्डकी रचना या तो आचार्य कनकनन्दिसे अध्ययन करके रची हो या आचार्य कनकनन्दि अपने सहधर्मीओंमें 'गुरु' नामसे प्रसिद्ध होंगे या आचार्य कनकनन्दि भी उनके गुरु रहे हों अर्थात् वे वय, दीक्षा आदिकी दृष्टिसे 'गुरु' हों । जो कुछ भी हो आपका आचार्य नेमिचन्द्रजीकी नजरोंमें एक सम्माननिय स्थान रहा है, जो, कि भगवान नेमिचन्द्र आचार्यदेवके गोम्मटसार कर्मकाण्ड ग्रंथ तकमें झलक आया है।
आपका एक ही ग्रंथ ४८ या ५१ गाथा प्रमाण ‘विस्तरसत्त्वत्रिभंगी' नामक मात्र २ प्रतियाँ कागज पर लिखी 'जैन सिद्धान्त भवन' आरामें है । उसमेंसे हुबहु ४० गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा ३५८ से ३९७ ही है । उसमें उक्त गाथा ३९६ भी आ गई। इस परसे ऐसा ज्ञात होता है, कि आचार्य कनकनन्दिने इतना छोटासा ग्रन्थ नहीं लिखा होगा, परन्तु आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीजीको गोम्मटसार कर्मकाण्ड़ लिखनेमें सहयोग हेतु, यह सत्त्व त्रिभंगी प्रकरण लिखा होगा - जो गोम्मटसार कर्मकाण्ड़की गाथा ३५८ से ३९७ बन गई व बादमें स्वयंने अल्प गाथाएँ जोड़कर उसे एक स्वतंत्र ग्रंथका रूप प्रदान किया हो ।
इस परसे भी स्पष्ट है, कि आप अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य थे। इतिहासकारों अनुसार आपका काल करीब ई. स. ९३९ माना गया है। आचार्यदेव कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीदेव भगवंतको कोटि कोटि वंदन ।
(166)