Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव श्री अभयनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीदेव
नन्दिसंघ देशीयगण संबंधित मान्यता है, कि उनकी शिष्य-प्रशिष्यकी दृष्टिसे, वह संघ अनेक शाखा-प्रशाखाओंमें बँट जाता है। अतः दीक्षागुरु एक शाखाके होने पर भी शिक्षागुरु विभिन्न प्रशाखाका हो सकता हैं—ऐसा अन्दरोन्दर उस समय चलता रहता होगा। उस अनुसार उक्त देशीयगणमें भिन्न-भिन्न मत पनपे हों ऐसा प्रतीत होता है। अतः मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ, कोण्डकुन्दान्वयकी इंगलेश्वरी शाखाके श्री समुदायमें एक माघनन्दी भट्टारक हुए। उनके नेमिचन्द्र भट्टारक और आचार्य अभयनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती ये दो शिष्य हुए।
आचार्य अभयनन्दिजी आचार्य गुणनन्दिके (शिक्षा) शिष्य थे तथा इन्द्रनन्दि व नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके समवयस्क दीक्षागुरु और वीरनन्दिके शिक्षागुरु थे। आचार्य अभयनन्दिजीको सिद्धान्तचक्रवर्तीकी उपाधि प्राप्त थी। अतः आपके इन तीनों शिष्यों(इन्द्रनन्दिजी, नेमिचंद्रजी तथा वीरनन्दिजी)को भी वह सहज ही मिल गई।
इनके अलावा आ. अभयनन्दिजीके कई शिष्य हुए हैं, उनमें बालचन्द्र पण्डित प्रिय शिष्य थे। आपके शिष्योंके बारेमें हलेबीड़, रावन्दूर, भारंगी, हुम्मच आदि अनेक स्थानोंमें गुणगरिमाके कई शिलालेख मिलते हैं। इससे स्पष्ट है, कि आप अपने समयके महासमर्थ आचार्य भगवंत होंगे।
आपका ज्येष्ठ शिष्य बुल्लगौड़ था। जिसका पुत्र गोपगौड़ कर्नाटक प्रदेशके 'नागरखण्ड'का शासक था, आपके लिए शिलालेखोंमें बताया गया है, कि आप छन्द, न्याय, शब्द, समय, अलंकार, व प्रमाणशास्त्र आदिके विशिष्ट विद्वान थे।
आपने अपने जीवनमें १. 'कर्मप्रकृति' नामक ग्रंथकी रचना की है। २. कर्मप्रकृति रहस्य, ३. तत्त्वार्थसूत्रकी तात्पर्यवृत्ति टीका, ४. पूजा कला, ५. (सम्भवतः) जैनेन्द्र व्याकरणकी महावृत्ति टीकाकी रचना की है।
इतिहासकारोंने देशीयगण गुर्वावलीमें आपका समय ई.स. ९३०-९५० दर्शाया है। आचार्य श्री अभयनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीदेव भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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