Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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अर्थ :- अपनी शक्तिसे वस्तु तत्त्वको सम्यकपसे सूचित करने वाले शब्दोंने यह समयकी व्याख्या की है। अपने स्वरूपमें लीन अमृतचन्द्रसूरिका तो कुछ भी कर्तृत्व नहीं
इसी तरह तत्त्वार्थसारके अन्तमें कहा है
वर्णाः पदानां कर्तारो वाक्यानां तु पदावलिः।
वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृणि पुनर्वयम् ॥ अर्थ- अक्षर पदोंके कर्ता हैं, पद वाक्योंके कर्ता हैं। वाक्य इस शास्त्रके कर्ता हैं, हम नहीं हैं।
पुरुषार्थसिद्धिउपायके अन्तमें भी यही भाव व्यक्त किया है। स्वकर्तृत्वका यह परिचय जैन अध्यात्मकी अमिट छापोंको व्यक्त करता है। यह बतलाता है, कि भगवान आचार्य अमृतचन्द्र जैन अध्यात्मके कोरे व्याख्याता नहीं थे, उन्होंने उसे अपने जीवनमें आत्मसात् कर लिया था। आपका एक-एक शब्द बहुमूल्य है, एक-एक वाक्यमें अमृत भरा है।
जैन वस्तु विज्ञानके तो वे परम प्रवीण आचार्य हैं ही। अनेकान्त उनकी तुला है। उस तुलाके दो पलड़े हैं—निश्चय और व्यवहार। उनके द्वारा वह वस्तुतत्त्वको मध्यस्थभावसे समीक्षा करते हैं। उनके अन्तस्तलमें दोंनो नयोंके प्रति पक्षातिक्रान्तता वर्तती थी। दोनों समभावरूप ज्ञान रखते हुए भी वे मोक्षमार्गमें उनकी उपयोगितारूप मूल्यकी दृष्टिसे ही विचार करते हैं।
__ आचार्य कुन्दकुन्दजीने अपने समयसारके प्रारंभमें जो निश्चयको भूतार्थ और व्यवहारको अभूतार्थ कहा है तथा शुद्धनयका स्वरूप कहा है, आचार्य अमृतचन्द्रजी सर्वत्र उसीका अनुगमन करते हैं। हमें टीकाओंमें खोजने पर भी ऐसे स्थल नहीं मिले, जहाँ आचार्य अमृतचन्द्रजीने आचार्य कुन्दकुन्दजीका अतिक्रमण किया हो, या उनकी ओटमें अपना कोई स्वतंत्र मन्तव्य निर्दिष्ट किया हो। वे एकान्ततः आचार्य कुन्दकुन्दजीके अनुगत हैं। आचार्य कुन्दकुन्दजीने अपने समयसारके द्वारा अध्यात्मका जो वृक्षारोपण किया था, आचार्य अमृतचन्द्रजीने उसे केवल समृद्ध करके पुष्पित
और फलित किया है। जैसे वृक्षके पत्ते, पुष्प, फल सब उससे अनुप्राणित रहते हैं, वही स्थिति आचार्य अमृतचन्द्रजीके वचनोंकी है। उनका एक एक पद आचार्य कुन्दकुन्दजीके अध्यात्मसे अनुप्राणित है।
समयसारकी व्याख्याका आरम्भ करते हुए तीसरे कलशमें जो भाव व्यक्त करते हैं, उसे पढ़ कर किसका तन-मन रोमाञ्चित नहीं होता। वह कहते हैं- 'मैं शुद्धद्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसे शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ। परन्तु मेरी परिणति मोहके उदयका निमित्त पाकर मलिन हो गई हैराग-द्वेषरूप हो रही है। शुद्ध आत्माका कथन करनेरूप इस समयसार ग्रन्थकी व्याख्या करनेका
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