Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यवर श्री जिनसेन (द्वितीय)
राजा अमोघवर्षका काल (ई.स. ८१५-८७७) विद्वानोंके सन्मानका सुन्दर काल था । ऐसे सुन्दरकालमें राजा अमोघवर्ष जिनके बड़े भक्त थे, ऐसे मूलसंघके पञ्चस्तूपान्वयी आचार्यदेव जिनसेनाचार्य (द्वितीय), निज आत्मानुभवकी प्रचुरधारामें रहते-रहते साहित्य- गगनके भास्कर समान निरन्तर प्रकाशित हैं।
दिगम्बर मुनिराज पक्षियोंकी भांति अनियतवासी होते हैं । अतः उनका कोई नियत स्थान तो नहीं होता तथा वे गृहवास निरत वनवासी होनेसे उनके गृहवास - जीवनके बारेमें भी अक्सर जानने नहीं मिलता। उसमें भी विशेषतौर पर आचार्यदेव जिनसेन (द्वितीय) के बारेमें तो जो ' आजन्म दिगम्बर थें – अतः उनके सम्बन्धमें कोई विशेष जानकारी उपलब्ध होना मुमकीन नहीं ।
फिर भी आपके परदादागुरु व दादागुरु क्रमशः आचार्य चन्द्रसेन तथा आचार्य आर्यनन्दी थे व आचार्य वीरसेन स्वामीके आप शिष्य थे। बुद्धिमान आचार्य दशरथगुरु आपके सधर्मा बन्धुगुरुभाई थे। आपने आदिपुराणमें एक अन्य गुरुभाई आचार्य जयसेन ( चतुर्थ / पंचम ) का भी स्मरण किया है। आपके शिष्य भावलिंग सह कवित्व आदि गुणोंयुक्त जिनशासनके ज्ञाता गुणभद्राचार्यदेव थे। भगवान गुणभद्रस्वामीको आप पर बड़ी भारी श्रद्धा व भक्ति थी ।
आचार्य भगवान जिनसेन स्वामी (द्वितीय) का चित्रकूट (चित्तौड़), बंकापुर (जिलाधारवाड ) व वटग्राम ( वड़ोदरा ) से काफी संबंध रहा है। आनतेन्द्र ( ज्ञानेन्द्र ) कि जो अमोघवर्षका सामन्त होनेका अनुमान है, उसने पावागढ़ आदिमें अनेक मंदिर बनवाये थे। उन्हीं मंदिरोंमेंसे एक मंदिरमें धवला टीका रची गई थी, ऐसा भी कुछ इतिहासकारोंका अनुमान है। इन सबसे यह ज्ञात होता है, कि आप अमोघवर्षके विस्तृत राज्यमें अत्यंत सन्मानित होनेसे आपका जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्णाटककी सीमाभूमि भी अनुमानित की जाती है ।
१. भगवान आचार्य जिनसेन (द्वितीय) बचपन से ही आचार्य वीरसेन गुरुके साथ-साथ जंगलमें चले जाया करते थे । तत्पश्चात् उन्होंने कर्णसंस्कार पूर्व ही दीक्षा धारण कर दिगम्बर मुनिराज हो गये थे। अतः आपने इस भवमें कपड़े पहने ही नहीं । अतः आप आजन्म दिगम्बर कहलाए ।
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