Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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पापYPUJINE
भगवान आचार्यदेव श्री गुणभद्रस्वामी
आचार्यदेव गुणभद्रस्वामी अनेक महान आचार्यों से एक हैं, जो स्वयं भावलिंग मुनिधर्म सह यथातथ्य द्रव्यलिंगरूप आचारसे अलंकृत थे और वैसा ही उन्होंने अपनी पैनी लेखनीसे लिखा भी है, कि जैसे : (१) मणियोंके मध्यमें कान्तिमान मणि विरले ही पाये जाते हैं, वैसे ही आजके साधुओंमें समीचीन संयमका परिपालन करनेवाले साधु विरले ही रह गये हैं।' (२) उसी भांति 'जैसे पलंग आदि ऊँचे स्थान पर
स्थित अल्पवयस्क अज्ञानी बालक तो ध्यानस्थ आचार्य श्री गुणभद्रस्वामी। उसके ऊपरसे गिर जानेकी शंकासे भयभीत होता है, किन्तु तीनों लोकोंके शिखररूप तपके ऊपर स्थित वह विचारशील साधु अपने अधःपतनसे, भयभीत नहीं होता है, यह बड़े आश्चर्यकी बात है।
आपके माता-पिता-कुल आदिकी जानकारी प्राप्त हो, ऐसी सामग्री अपने साहित्यमें आपने नहीं रखी है, फिर भी आपके साहित्यसे इतना निश्चित है, कि आप अपने समयके बहुश्रुत विद्वान आचार्य भगवंत थे। आप श्री जिनसेनाचार्य (द्वितीय) और श्री आचार्य दशरथगुरुके शिष्य थे। हो सकता हैं, 'दशरथगुरु' आपके विद्यागुरु हों। आपके दादागुरु धवला ग्रंथके रचयिता आचार्य गुरुवर्य वीरसेनस्वामी थे। आचार्य गुणभद्रजीके शिष्य लोकसेन आचार्य थे।
प्रतिभामूर्ति आप संस्कृत भाषाके श्रेष्ठ कवि भी थे। आप योग्य गुरुके योग्यतम शिष्य थे। आपकी रचनाओंमें सरलता व सरसताके साथ प्रसादगुण भी समाहित है। आप
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