Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान श्री एलाचार्य यद्यपि 'एलाचार्य' नाम भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके विविध नामोंमेंसे एक है। फिर भी ये एलाचार्य उनसे भिन्न महासमर्थ आचार्य भगवंत हैं।
___ यद्यपि आप स्वयंने कोई ग्रंथ रचना नहीं की हैं; फिर भी जिसमें जिनधर्मके गंभीर रहस्य खुले, ऐसे धवलाजी व जयधवलाजीकी रचनाका एक प्रकारसे आपको श्रेय दिया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि आपने धवलाजीके पूर्ण व जयधवलाजीके आधभागके रचयिता भगवान वीरसेन स्वामीको सिद्धांत ग्रंथकी विद्या सिखाई । इतना ही नहीं, ये रचना करनेका आदेश भी उन्हें दिया था। अतः आपकी कृपाके फलसे ही धवलाजी व जयधवलाजीके रूपमें वाङ्गमय जिनवाणी आज हमें संप्राप्त हुई है।
आप सिद्धान्तके विशाल ज्ञाता थे व भगवान वीरसेनस्वामीके विद्यागुरु होनेसे उनके समकालिन थे। धवलाजी व जयधवलाजीसे ज्ञात होता है, कि आपका सिद्धांत संबंधित पाण्डित्य अत्यधिक था, तब ही तो आप भगवान वीरसेन स्वामीको यह शिक्षा प्रदान कर सके।
आचार्य इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें आपके संबंधमें लिखा है, कि आप चित्रकूट (हालका चित्तौड़) नगरके निवासी थे व आपके पासमें रहकर भगवान वीरसेनस्वामीने सिद्धांतोंका अध्ययन करके निबन्धनादि आठ अधिकारोंको लिखा है।
____ आप वात्सल्यकी मूर्ति थे। अतः आपके वात्सल्यभावकी भगवान वीरसेनस्वामीने भूरीभूरी प्रशंसा की है। इससे यह भी ज्ञात होता है, कि भगवान वीरसेनस्वामी आपके अत्यंत स्नेहयुक्त कृपापात्र रहे होंगे।
यद्यपि आपने किसी भी ग्रंथकी रचना नहीं की थी, क्योंकि आपकी किसी भी कृतिका उद्धरण आपके पश्चात्वर्ती किन्हीं भी आचार्योंने नहीं दिया है, परंतु आपने भगवान वीरसेन स्वामीको सिद्धांत-शिक्षा दी होनेसे आप सिद्धान्तोंके पारगामी व मर्मज्ञ थे। चूँकि भगवान वीरसेन स्वामीने जयधवला टीकामें मतभेदोंका निर्देश करते हुए स्पष्ट लिखा है, कि भट्टारक एलाचार्यका उपदेश ही समीचीन होनेसे ग्राह्य है। इससे अनुमान लगता है, कि आप वाचकगुरु थे व आपकी प्रतिभा अप्रतिम थी।
इतिहासकारोंके आधारसे यह ज्ञात होता है, कि आपका समय ई.स. ७७० के आस-पासका है।
सिद्धान्तज्ञानदाता भगवान श्री एलाचार्यस्वामीको कोटि कोटि वंदन।
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