Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्य
श्री वीरसेन स्वामी
दिगम्बर आम्नायमें 'वीरसेन' नामक कई आचार्य हुए हैं, पर उन सबमें धवला टीकाके रचयिता श्री वीरसेनस्वामीकी निर्मल कीर्ति दिगम्बर आम्नायमें उज्ज्वल रूपसे प्रकाशित हो रही है।
आप अपने समयके बहुत बड़े विद्वान थे। आपकी विद्वत्ताकी भूरि-भूरि प्रशंसा आपके पश्चात्वर्ती आचार्योने तो की ही है, पर आपके समकालीन आचार्य जिनसेनस्वामी ( प्रथम ) ने भी स्व-पर पक्षके विजेता आदि उपमाओंसे आपको अलंकृत किया है।
आप जिनेन्द्र भगवान प्ररूपित सिद्धान्तोंके पारगामी होनेसे आपने षट्खंडागमकी पूर्णरूपेण ७२००० श्लोकप्रमाण धवला टीका व गुणधर आचार्य कृत कसायप्राभृत ग्रंथकी २०००० श्लोकप्रमाण टीका लिखी थी। आपके समाधिस्थ होने पर उस ग्रंथकी बाकीकी ४०००० श्लोकप्रमाण जयधवला टीका आचार्य जिनसेनस्वामी (द्वितीय) ने पूर्ण की। एक व्यक्ति द्वारा एक लाख श्लोक प्रमाण यह टीका लिखनेसे निम्नोक्त यह निष्कर्ष निकलता है—
१. जैसे भरत चक्रवर्तीकी आज्ञा छहों खण्ड़ोंमें प्रवर्तित होती हुई लक्ष्मीवन्तोंको प्रसन्न करती थी, वैसे आचार्य भगवान वीरसेनस्वामीकी मधुरवाणी, समस्त प्राणीओंको प्रमुदित करती हुई, आपकी कुशाग्रबुद्धिरूप आज्ञा समस्त विषयोंमें— सिद्धांत, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, काव्य, गणित व आगम आदि सर्व- विषयगामिनी थी अर्थात् आपकी वाणीका संचार छ खण्ड़रूप षट्खंड़ागम नामक परमागमके सब ही विषयोंमें निर्विवादरूपसे मान्य था ।
२. आपकी प्रत्येक विषयकी प्ररूपणा विस्तृत, दार्शनिकतापूर्ण व परम्परानुमोदनके साथ-साथ उस-उस विषय सबंधित वस्तुका स्वरूप, प्रकृति, गुण-दोष आदिकी दृष्टिसे तर्कपूर्ण और समालोचनपूर्ण थी। जिसमें अनुभवशीलता, विषयकी प्रौढता आदि देख उस समयके विद्वानोंको सर्वज्ञके सद्भाव विषयक शंका नष्ट हो गई थी । यतः जब एक छद्मस्थ व्यक्ति
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