Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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CAP
भगवान आचार्य श्री शान्त अथवा
शान्तिषेण
भगवान आचार्य शान्त अथवा शान्तिषणका साहित्यमें सविशेष उल्लेख है। इनकी उत्प्रेक्षालंकारसे युक्त वक्रोक्तियोंकी प्रशंसा की गई है। बताया है
शान्तस्यापि च वक्रोक्ती रम्योत्प्रेक्षा बलान्मनः।
कस्य नोद्घाटितेऽन्वर्थे रमणीयेऽनुरञ्जयेत् ॥ अर्थात् श्री शान्त कविकी वक्रोक्तिरूप रचना रमणीय उत्प्रेक्षाओंके बलसे मनोहर अर्थके प्रकट होने पर किसके मनको अनुरक्त नहीं करती है ?
पुन्नाट संघकी गुर्वावलि अनुसार आप आचार्य जयसेनजीके गुरु थे।
आचार्य जिनसेनने अपनी गुरु परम्पराका वर्णन करते हुए आचार्य जयसेनजीके पूर्व एक भगवान शान्तिषेण आचार्यका नामोल्लेख किया है। आचार्य जिनसेनजीकी गुरु परम्परामें नाम आनेके कारण आपका समय ७वीं शताब्दी होना चाहिए। हरिवंशपुराणके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिमें विनयन्धर, गुप्तश्रुति, गुप्तऋषि, मुनीश्वर, शिवगुप्त, अर्हबलि, मन्दरार्य, मित्रविरवि, बलदेव, मित्रक, सिंहबल, वीरवित, पद्मसेन, व्याघ्रहस्त, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, श्रीधरसेन, सुधर्मसेन, सिंहसेन, सुनन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुनन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिषेण आचार्य हुए। अनन्तर जयसेन, अमितसेन, कीर्तिसेन और जयसेन हुए हैं। स्पष्ट है कि शान्तिषेण अच्छे कवि और दार्शनिक थे।
आपका समय ईसुकी सातवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्यदेव शान्तिषेण भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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