Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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कमी नहीं आई थी, जितनी आचार्य धरसेन स्वामीके समयमें आ गई थी। अतएव आचार्य गुणधर भगवंत आचार्य धरसेन स्वामीके पूर्ववर्ती थे।
__ आचार्य गुणधर भगवंतकी शब्दोंकी गहनता व गंभीरता इतनी थी, कि उन्होंने सिर्फ ११८० (२३३) गाथाओंमें ही मध्यमपदकी अपेक्षासे ६०,००० पद प्रमाण कसायपाहुडके ग्रंथविषयको समाविष्ट कर लिया था। इतना ही नहीं मात्र ३ गाथामें ही ५ अधिकारके विषयको समाविष्ट कर दिया था।
यद्यपि आचार्यदेवने मात्र एक ग्रंथ—'कसायपाहुड'की ही रचना की है, पर वह इतनी गंभीर व गहन है कि, वह अपने आपमें एक अनूठा स्थान रखती है। यदि यतिवृषभाचार्यदेवने इस ग्रंथ पर चूर्णिसूत्र न रचे होते तो इस ग्रंथके गाथासूत्रोंका अनन्त गर्भित अर्थका स्वरूप हमें ज्ञात नहीं हो पाता।
इतना ही नहीं, यह कसायपाहुड ग्रंथ पूरे ‘पेजदोषपाहुड'का उपसंहार स्वरूप है। इस ग्रंथमें आचार्यदेवने मात्र मोहनीयकर्मके निमित्तकी मुख्यतासे जीवके परिणाम व उसके उपशम, क्षय, क्षयोपशमसे होते जीवके दर्शन (श्रद्धा) व चारित्र लब्धिका स्वरूप बताया है। इस तरह मात्र मोहनीय दशावंत जीवकी वैविध्यता (आस्रव व बंध तत्त्व) व उसके नाशका उपाय(संवर व निर्जरा)का ही वर्णन किया है। इस तरह मोहनीयकर्म निमित्तक जीव अपने मोहभावसे इस संसारमें दुःखी है, व उसका नाश करना ही सुखका उपाय है- ऐसे मोहसे दुःखी जीवोंके लिए यह ग्रंथ एक आशीर्वादरूप है।
____ गुणधर आचार्यके गुरुके संबंधमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। पर इतना ज्ञात होता है, कि 'कसायपाहुड' ग्रंथकी रचना करके शायद आपने अन्त समयमें आचार्य नागहस्तिदेव व आचार्य आर्यमंक्षुदेवको इसका व्याख्यान किया हो। अतः आप आचार्य नागहस्ति व आर्यमंक्षुके शिक्षागुरु होंगे—ऐसा प्रतीत होता है।
आपका काल इसकी प्रथम शताब्दी पूर्वपाद या उससे भी पूर्वका माना जाता है।
आचार्यदेव गुणधर भगवंतको कोटि कोटि वंदन। १. कसायपाहुड़ ग्रंथकी गाथाओंके बारेमें दो मत हैं—(१) आचार्यवर गुणधरस्वामीने १८० गाथाओंमें
यह ग्रंथ रचा था। पश्चात्की ५३ गाथा या तो आचार्य नागहस्तिने लिखी हो या आचार्य यतिवृषभजीने चूर्णिसूत्रों सह इसे इन गाथओंको लिपिबद्ध किया हो। या (२) १८० गाथाओंमें पेज्जदोस पाहुड़का उपसंहार कर चूकनेके बाद प्रस्तावना, विषयसूचि और परिशिष्टके रूपमें उक्त ५३ गाथाओंकी गुणधराचार्य स्वयंने पीछेसे रचना की हो।
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