Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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थे। ९. गहनीय विषयको संक्षेपमें प्रस्तुत करना भी उन्हें आता था । १०. आग्रायणीयपूर्वके पञ्चम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतके व्याख्यानकर्ता थे। ११. पठन, चिंतन एवं शिष्य - उद्बोधनकी कलामें पारंगत थे । १२. आप एकांतप्रिय व ज्ञान-ध्यानमें मग्न रहनेवाले थे । १३. आप समाधिमरण प्रिय थे ।
धवलाटीकासे आचार्य धरसेनके गुरुके नामका पता नहीं चलता । आचार्य इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें आचार्य लोहार्य तककी गुरुपरम्पराके पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्योंका उल्लेख आया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वोके एकदेशज्ञाता थे। तदन्तर अर्हद्बलिका उल्लेख आता है। ये बड़े भारी संघनायक थे और इन्होंने संघोंकी स्थापना की थी । आचार्य अर्हद्बलिके पश्चात् श्रुतावतारमें आचार्य माघनन्दिका नाम आया है। इन आचार्य माघनन्दिके पश्चात् आचार्य धरसेनके नामका उल्लेख आया है। इस प्रकार श्रुतावतारमें आचार्य अर्हद्बलि, आचार्य माघनन्दि, आचार्य धरसेन इन तीनों आचार्योंका उल्लेख मिलता है। इन तीनोंमें गुरु शिष्यका सम्बन्ध था या नहीं इसका निर्देश नहीं आया है।
नन्दिसंघकी प्राकृतपट्टावलीसे यह अवगत होता है, कि आचार्य अर्हद्बलि, आचार्य माघनन्दि, आचार्य धरसेन, आचार्य पुष्पदंत और आचार्य भूतबलि एक दूसरेके उत्तराधिकारी थे। अतएव आचार्य धरसेनके दादागुरु आचार्य अर्हबलि और गुरु आचार्य माघनन्दि कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। गुर्वावलीमें आचार्य धरसेनका निर्देश नहीं है । अतः इस गुर्वावलिके आधार पर यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है, कि आचार्य धरसेनके गुरु आचार्य माघनन्दि ही थे। सत्य है, कि आचार्य धरसेन विद्यानुरागी थे और शास्त्राभ्यास में संलग्न रहनेके कारण संघका नायकत्व आचार्य माघनन्दिके अन्य शिष्य आचार्य जिनचन्द्र पर पड़ा हो। आचार्य धरसेनने पुष्पदंत और भूतबलिको सिद्धान्त - आगमका अध्ययन कराकर अपनी एक नयी परम्परा स्थापित की हो।
आपकी षट्खंडागम व योनिप्राभृत नामक दो रचनाएँ कही जा सकती है।
आचार्यदेव धरसेनका काल करीब ई.स. ३८ से १०६ के आसपासका निर्णित होता है, ऐसा इतिहासकारोंका मत है।
षट्खंडागम उपदेशक आचार्यदेव धरसेन भगवंतको कोटि कोटि वंदन ।
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