Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
पश्चात् राजा शिवकोटिके डराने पर समन्तभद्रने इसे उपसर्ग समझकर चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी 'स्वयंभू-स्तोत्र' नामक स्तुति आरंभ की। वे एकाग्रचित्तसे स्तवन करते रहे। जब वे चन्द्रप्रभस्वामीकी स्तुति कर रहे थे, कि शिवकी पिण्डी विदीर्ण हो गयी और मध्यसे चन्द्रप्रभस्वामीका मनोज्ञ बिम्ब प्रकट हो गया। आज भी यह बनारसमें 'फटालिंग' के नामसे प्रचलित व विद्यमान है। समन्तभद्रजीके इस महात्म्यको देखकर शिवकोटि राजा व उनके भाई शिवायन सहित सब लोग आश्चर्यचकित हो गये। समन्तभद्रजीने वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी स्तुति पूर्ण हो जानेपर राजाको आशीर्वाद दिया।
___आपका रोग काफी अंशोमें शमन हो गया होनेसे आपने पुनः दीक्षा धारणकर, आत्मसाधना करने लगे। वे जिस गाँवमें विहार करते थे, वहाँ आपसे वादके लिए कोई आता तो शान्तभावसह अकाट्य न्यायसे उसे अनेकान्तमय उपदेश देते, जिससे वे तुरन्त संतुष्ट हो जाते। अतः आपका अपरनाम 'वादिराज' अर्थात् 'आचार्य वादिराज' भी पड़ गया था।
शिलालेखोंके आधारसे आप श्रुतकेवलियोंके समान माने जाते थे व आपको भगवान कुंकुंदाचार्यदेवके शिष्य उमास्वामी आचार्य व उनके शिष्य बलाकपिच्छाचार्यके अन्वयी माना गया है।
आपने अपने जीवनकालमें जैन वाङ्गमयको बाहुल्यतासे स्तुति व अनेकान्त न्यायसे सिद्ध करते हुए समृद्ध किया है। आपकी प्रसिद्ध रचनाएँ : (१) स्वयंभूस्तोत्र, (२) स्तुतिविद्या-अपरनाम जिनशतक, (३) देवागमस्तोत्र-अपरनाम आप्तमीमांसा, (४) युक्त्या-नुशासन-अपरनाम श्री वीरजिनगुणकथा, (५) रत्नकरंडक श्रावकाचार, (६) जीवसिद्धि, (७) तत्त्वानुशासन, (८) प्राकृत व्याकरण, (९) प्रमाणपदार्थ, (१०) कर्मप्राभृत टीका, (११) गंधहस्ति महाभाष्य (तत्त्वार्थसूत्र टीका)-अप्राप्य, (१२) षट्खंडागमके पाँच खण्डों पर टीका।
आप वि.स. १३८-१८५के आचार्य हों ऐसा अनुमानित किया जाता है। न्यायविद्याके प्रचण्ड आचार्यदेव समन्तभद्र भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
(91)