Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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आचार्य आर्यमक्षुके शिष्य और आचार्य नागहस्तिके अन्तेवासी थे।
३.
४. आचार्यवर यतिवृषभ आठवें कर्मप्रवादके ज्ञाता थे ।
५.
व्यक्तित्वकी महानताकी दृष्टिसे आचार्य यतिवृषभ, आचार्य भूतबलिके समकक्ष थे । ६. चूर्णिसूत्रोंमें आचार्य यतिवृषभने सूत्रशैलीको प्रतिबिम्बित किया है।
७.
परम्परासे प्रचलित ज्ञानको आत्मसात् कर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की गई है।
८.
आचार्य यतिवृषभ प्रचुरस्वसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदनसह आगमवेत्ता तो थे ही, पर उन्होंने सभी परम्पराओंमें प्रचलित उपदेशशैलीका परिज्ञान प्राप्त किया और अपनी प्रतिभाका चूर्णिसूत्रोंमें उपयोग किया ।
आपने प्रवचन वात्सल्यसे प्रेरित होकर आचार्य गुणधरके प्रवाहरूपसे प्राप्त 'कसायपाहुड़' ग्रंथ पर चूर्णिसूत्रकी रचना की थी ।
१०. विद्वानोके मतानुसार आपने 'कसायपाहुड़' के चूर्णिसूत्रोंके उपरांत 'तिल्लोयपण्णति’ नामक ग्रंथकी भी रचना की थी ।
११. आपको महाकर्मप्रकृति प्राभृतका ज्ञान होनेसे आप आचार्यवर आर्यमंक्षुके शिष्य व आचार्य नागहस्तिके अन्तेवासी शिष्य होनेसे आपकी प्राचीनता सिद्ध होती है ।
अन्तमें, जैसे विषयासक्त पुरुषोंको विषयासक्त पुरुषोंकी कथा रुचिपूर्वक सुनना बहुत ही पसंद आती है, उससे उनकी विषयरसिकता बलवत्तर होती है; उसी भाँति अध्यात्मके रुचिवंत जीवोंको आगम-अध्यात्मरसिक आचार्योंकी जीवनकथा पसंद पड़ती है । आगमअध्यात्ममें मस्त ऐसे आचार्य यतिवृषभके जीवनसे हम भी वैसे ही अध्यात्मरसको प्रमुदित करते हुए, अपनी अध्यात्म रुचिको संजोयेंगे ।
भगवान गुणधर आचार्यसे शुरु होती परम्परा यहीं अर्थात् यतिवृषभ आचार्य तक पूर्ण हो जाती है।
आपका काल निर्णित करना मुश्किल है, फिर भी कुछ विद्वानोंका मत है, ि आपका काल ई.स. १४३ से १७३के आसपास होना चाहिए ।
आचार्यदेव यतिवृषभ भगवंतको कोटि कोटि वंदन ।
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