Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान पार्श्वनाथके मंदिरमें चारित्रभूषण मुनिसे 'देवागम स्तोत्र' सुनकर
अमात्य पात्रकेसरी आश्चर्यचकित होकर स्तोत्र कंठस्थ करते हैं। आचार्य समन्तभद्रजीके 'देवागम' स्तोत्र अपरनाम आप्तमीमांसाका पाठ सुना। उन्होंने मुनिराजसे स्तोत्रका अर्थ पूछा, पर मुनिराज अर्थ न बतला सके। पात्रकेसरीने अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा स्तोत्र कंठस्थ कर लिया और अर्थ विचारने लगे। विचारने पर वे आश्चर्यचकित हुए। जैसे-जैसे स्तोत्रका अर्थ स्पष्ट होने लगा वैसे-वैसे उनकी जैन तत्त्वोंपर श्रद्धा उत्पन्न होती गयी और अन्तमें उन्होंने जिनधर्म स्वीकार कर लिया।
पर उन्हें 'हेतु'के विषयमें सन्देह बना रहा और उस सन्देहको लिये हुए सो जाने पर रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न आया, कि पार्श्वनाथके मन्दिरमें ‘फण' पर लिखा हुआ , 'हेतु'का लक्षण प्राप्त हो जायगा। अतएव प्रातःकाल जब वे भगवान पार्श्वनाथके मन्दिरमें पहुँचे तो वहाँ उस मूर्तिके 'फण' पर निम्न प्रकार हेतुलक्षण प्राप्त हुआ—
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। अर्थ : जहाँ ‘अन्यथा अनुपपत्ति' लक्षण हो, वहाँ ‘पक्षधर्मत्व', 'सपक्षसत्त्व', 'विपक्ष
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