Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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(५) 'राजावलिकथे' में भी उक्त कथा प्रायः समान रूपमें मिलती है। अन्तर इतना ही है, कि काञ्चीके बौद्धोंने हिमशीतलकी सभा जैनोंसे इसी शर्त पर शास्त्रार्थ किया, कि हारने पर उस संप्रदायके सभी मनुष्य कोल्हूमें पिलवा दिये जायेंगे। इस कथाके अनुसार यह शास्त्रार्थ १७दिनों तक चला। अकलंकको कुसुमाण्डिनी देवीने स्वप्नमें दर्शन देकर कहा, कि तुम अपने प्रश्नोंको प्रकारान्तरसे उपस्थित करने पर जीत सकोगे। अकलंकने वैसा ही किया और वे विजयी हुए। बौद्ध कोल्हमें पिलवा दिये जानेके भयसे कलिंगसे सिलोन(लङ्का) चले गये।
(६) अकलंक मान्यखेटके राजा, शुभतुंगके मन्त्री पुरुषोत्तमके पुत्र थे। 'राजावलिकथे'में इन्हें काञ्चीके जिनदास नामक ब्राह्मणका पुत्र कहा गया है। पर तत्त्वार्थवार्तिकके प्रथम अध्यायके अन्तमें उपलब्ध प्रशस्तिसे ये लघुहव्व नृपतिके पुत्र प्रतीत होते हैं।
ये लघुहव्वनृपति कौन हैं और किस प्रदेशके राजा थे, यह इस परसे या अन्य कहींसे ज्ञात नहीं होता। नामसे इतना प्रतीत होता है, कि वे दक्षिणके होने चाहिए और उसी क्षेत्रके वे नृपति रहे होंगे।
आपने किनसे व कब दीक्षा ग्रहण की थी, वह कथानक प्राप्त नहीं हुआ, फिर भी आप अति प्रशंसनीय, विद्वततायुक्त भावलिंगी आचार्य भगवंत थे, इसमें दो मत नहीं है।
उपर्युक्त कथानकोंसे यह स्पष्ट है, कि भगवान अकलंकदेव वादक्षेत्रमें दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान थे तथा राष्ट्रकूटवंशी राजा साहसतुंगकी सभामें उन्होंने सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानोंको पराजित किया। काञ्चीके पल्लवीवंशी राजा हिमशीतलकी राजसभामें भी आपने अपूर्व विजय प्राप्त की थी। इसी कारण आचार्य भगवंत विद्यानन्दिदेवने आपको सकलतार्किकचूड़ामणि कहा है।
___ आपके शिष्यका नाम महादेव भट्टारक था। उनके बारेमें विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती है।
आपने न्याय विषयक अनेक ग्रंथोंकी रचना की हैं। आपके (१) लधीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्तिसहित), (२) न्यायविनिश्चय, (३) सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति), (४) प्रमाणसंग्रह (सवृत्ति), (५) तत्त्वार्थवार्त्तिक (सभाष्य), (६) अष्टशती-(देवागमविवृत्ति)।
आपका समय ई.स. ६२० से ६८०के बीचका होना ही विद्वानोंको स्वीकार है। न्यायशास्त्रके सूर्यरूप आचार्य अकलंकदेवको कोटि कोटि वंदन।
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