Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
इस प्रकार जैन वाङ्मयमें आचार्य समन्तभद्रजीको, पूर्ण तेजस्वी विद्वान, प्रभावशाली दार्शनिक, महावादविजेता और कवि-वेधाके रूपमें स्मरण किया गया है। जैनधर्म और जैनसिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान होनेके साथ-साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार एवं काव्यकोषादि विषयोंमें आप पूर्णतया निष्णात थे। अपनी अलौकिक प्रतिभा द्वारा आपने तत्कालीन ज्ञान और विज्ञानके प्रायः समस्त विषयोंको आत्मसात् कर लिया था। संस्कृत, प्राकृत आदि विभिन्न भाषाओंके भी आप पारंगत विद्वान थे। स्तुतिविद्याग्रन्थसे आपके शब्दाधिपत्यपर भी पूरा प्रकाश पड़ता है। आपके भावी तीर्थंकर होनेके प्रमाण भी मिलते हैं।
___ दक्षिण भारतमें उच्च कोटिके संस्कृत-ज्ञानको, प्रोत्साहन और प्रसारण देनेवालोंमें आचार्यदेव समन्तभद्रका नाम उल्लेखनीय है। आप ऐसे युगसंस्थापक हैं, जिन्होंने जैन विद्याके क्षेत्रमें एक नया आलोक विकीर्ण किया है। अपने समयके प्रचलित नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, क्षणिकवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, पुरुष एवं प्रकृतिवाद आदिकी समीक्षाकर स्याद्वाद-सिद्धांतकी प्रतिष्ठा की है।
आपने कांचीमें गृहस्थधर्मका त्यागकर भगवती जिन-दीक्षा धारण की थी।
प्रसिद्ध कथानुसार ई.स. १३८में मुनिदीक्षा ग्रहण करनेके पश्चात् जब वे मणुवकहल्ली स्थानमें विचरण कर रहे थे, कि उन्हें 'भस्मक व्याधि' नामक भयानक रोग हो गया, जिससे दिगम्बर मुनिपदका निर्वाह उन्हें अशक्य प्रतीत हुआ। अतएव उन्होंने गुरुसे समाधिमरण धारण करनेकी अनुमति माँगी। गुरुने भव्य शिष्यको आदेश देते हुए कहा—'आपसे धर्म और साहित्यकी बहुत उन्नति होगी, अतः आप दीक्षा छोड़कर रोग-शमनका उपाय करें। रोग दूर होनेपर पुनः दीक्षा ग्रहण कर लें'। गुरुके इस आदेशानुसार समन्तभद्र रोगोपचार हेतु दिगम्बर मुनिपदको छोड़कर संन्यासी बन गए और इधर-उधर विचरण करने लगे। पश्चात् वाराणसीमें शिवकोटि राजाके भीमलिंग नामक शिवालयमें जाकर राजाको आशीर्वाद दिया और शिवजीको अर्पण किये जाने वाले नैवेद्यको शिवजीको ही खिला देनेकी घोषणा की।
राजा इससे प्रसन्न हुआ और शिवजीको नैवेद्य भक्षण करानेकी अनुमति उन्हें दे दी। समन्तभद्र अनुमति प्राप्त कर शिवालयके किवाड़ बन्द कर उस नैवेद्यको स्वयं ही भक्षण कर रोगको शांत करने लगे। शनैः शनैः उनकी व्याधि उपशमन होने लगी और भोगकी सामग्री बचने लगी। राजाको इस पर सन्देह हुआ। अतः गुप्तरूपसे उसने शिवालयके भीतर कुछ व्यक्तियोंको छिपा दिया। समन्तभद्रको नैवेद्यका भक्षण करते हुए छिपे व्यक्तियोंने देख लिया।
राजाने श्री समन्तभद्रसे शिवपिण्डको नमस्कार करनेके लिये कहा। तब उन्होंने इस बारेमें आनाकानी करते हुए कहा, कि यह शिवलिंग मेरा नमस्कार सहन नहीं कर सकेगा।
(89)