Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव श्री आर्यमंक्षु और नागहस्ति
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आचार्यवर आर्यमंक्षु और नागहस्ति दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंमें सन्मानित हैं। इतना ही नहीं दिगम्बर आम्नायमें आपका स्थान भगवान आचार्यवर पुष्पदंत व भूतबलि मुनिवरके समकक्ष, समकालीन व भिन्न-भिन्न गुरुपरम्पराके आचार्यके रूपमें रहा है। जयधवला शास्त्रमें बताया है, कि 'विपुलाचलके ऊपर स्थित भगवन् महावीररूपी दिवाकरसे निकली वाणी गौतम, लोहार्य, जम्बूस्वामी आदि आचार्यपरम्परासे आकर ये कसायपाहुड़के गाथासूत्र गुणधराचार्यको प्राप्त होकर, गाथारूपसे परिणमन करके, पुनः आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्यके द्वारा आर्य यतिवृषभको प्राप्त होकर, चूर्णिसूत्ररूपसे परिणत हुई है। ऐसी यह दिव्यध्वनि किरणरूपसे अज्ञान अन्धकारको नष्ट करती है'। इससे स्पष्ट है, कि ये दोनों आचार्य अपने समयके कर्मसिद्धांतके महान वेत्ता और आगमके पारगामी थे तथा वे भगवान महावीरसे चली आई आचार्यपरम्परासे अभिन्न थे। इतना ही नहीं, धवला टीकाके आधारसे वे 'क्षमाश्रमण' और 'महावाचक'के रूपमें बहुमानित रहे हैं। यह ही उनके सिद्धान्तविषयक विद्वत्ताको सूचित करता है।
भगवान आचार्यदेव वीरसेनस्वामीने धवला व जयधवला टीकामें विविध स्थलों पर, आप उभय आचार्यवरोंकी जो विविधरूपसे महत्ता प्रदर्शित की है, उससे ज्ञात होता है, कि आप न केवल 'क्षमाश्रमण' व 'महावाचक' थे; पर जिनेन्द्रसिद्धान्तोंके मर्मज्ञ व व्याख्याता भी थे। साथ-साथमें आपके वचन भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिके साथ एकरसतायुक्त थे। आप दोनोंकी पूर्वोत्तर अवधिको गौण करें, तो आप दोनों समकालिन थे।
गुणधर आचार्य द्वारा भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिसे विनिर्गत १४ पूर्वोमेसे पाँचवे पूर्व'ज्ञानप्रवादपूर्व', 'पेजदोषपाहुड़' व 'महाकम्मयपाहुड़का आपने ज्ञान प्राप्त कर यतिवृषभ आचार्यको देनेसे 'कसायपाहुड़' ग्रंथमें यतिवृषभ आचार्यने गाथाबद्ध चूर्णिसूत्र रचे जिससे यह महान ग्रन्थ जीवोंको बोधगम्य हो सका। १. क्षमाश्रमण = मुनिओंकी उत्तमतादर्शक एक उपाधि । २. महावाचक = मुनिओंकी उत्तमतादर्शक एक उपाधि ।
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