Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव
श्री कुंदकुंदस्वामी दिगम्बर जैनाचार्योंमें कुंदकुंदाचार्यका नाम सर्वोपरि है। मूर्तिलेखों, शिलालेखों, ग्रन्थप्रशस्तिलेखों एवं पूर्वाचार्योंके संस्करणोंमें कुंदकुंदस्वामीका नाम बड़ी श्रद्धाके साथ लिखा मिलता है।
मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणि।
मंगलम् कुंदकुंदार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥ इस मंगल पदके द्वारा भगवान महावीर और उनके प्रधान गणधर गौतमस्वामीके बाद कुंदकुंदस्वामीको मंगल कहा गया है। इनकी प्रशस्तिमें कविवर वृंदावनदासजी लिखते हैं
‘हुए न, हैं न, होंहिगे मुनिंद कुन्दकुन्द से॥ इस तरह भगवान महावीरके निर्वाण पश्चात् केवली, श्रुतकेवली, अंगों व पूर्वोके ज्ञाता, अंगों व पूर्वोके एकदेश ज्ञाता—ऐसे अनेकानेक महान्-महान् आचार्य दिगम्बर जिनशासनमें हुए हैं, फिर भी गौतम गणधरके पश्चात् उन किन्हीं आचार्यवरका नाम न लेकर भगवान कुन्दकुन्दाचार्यका नाम ही मंगलाचरणमें लिया जाता है—जिससे यह सूचित होता है, कि ये धर्म स्थंभस्वरूप, महासमर्थ आचार्यवर थे। आपने ही जिनशासनकी आधारशिला-स्वरूप, परमामृतमय अध्यात्म-ज्ञानसे जिनशासनको इस कलिकालमें अक्षुण्णतया टिका रखा है। यह ही आपका महान उपकार है। आपके पश्चातवर्ती आचार्यने आपको 'कलिकाल सर्वज्ञ' भी स्वीकृत किया है। द्रव्यानुयोगके प्रधान ग्रंथ रचकर वीर शासनका शुद्धात्मानुभूति प्रधान मोक्षमार्ग व तीर्थंकरदेवों द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धान्तोंको विच्छेद होनेसे आपने ही बचा लिया है, जिससे इस दुषमकालमें भी मोक्षमार्गको अक्षुण्णरूपसे आपने ही टिकाया है।
श्री कुंदकुंदाचार्यदेवके बारेमें यह किवदंती है, कि पूर्वभवमें एक ग्वाला सेटके यहाँ रहता था और गायोंको चराने ले जाता था। गायोंको चराते समय, उसने वहाँ एक मुनिराज भगवंतको ध्यानमें बैठा देखा। प्रथम तो उसे लगा, कि यह कोई दरिद्री है, परन्तु जब मुनिराजके दर्शन करने राजा-महाराजा-श्रेष्ठीवर्गको आते देखकर उसे मुनिराजमें कोई अद्भुत
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