Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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अति हर्षित हुए व मुखसे वचन निकल पड़े, कि श्रुतदेवता जयवंत हो। उन दोनोंने वहाँ पहुँचकर आचार्य धरसेनकी तीन प्रदक्षिणा दी और उनके चरणोंमें बैठकर सविनय नमस्कार किया । आचार्य धरसेनने उन दोनों योग्य शिष्योंकी' परीक्षा ली और परीक्षामें उत्तीर्ण होनेके पश्चात् उन्हें सिद्धान्तकी शिक्षा दी। ये दोनों मुनि पुष्पदंत और भूतबलि नामके आचार्य थे। यह शिक्षा आषाढ शुक्ला एकादशीको ज्यों ही पूर्ण हुई, वर्षाकालके समीप आ जानेसे, उसी दिन अपने पाससे आचार्यदेव धरसेनने, उन्हें विदा कर दिया। दोनों शिष्योंने गुरुकी आज्ञा अनुल्लंघनीय मानकर उसका पालन किया और वहाँसे चलकर अंकलेश्वर में चातुर्मास किया ।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और विबुध श्रीधरकृत श्रुतावतारके आधारसे ज्ञात होता है, कि धरसेनाचार्यको उनकी मृत्यु निकट है, ऐसा ज्ञात था । आगन्तुक मुनिवरोंको उस कारण क्लेश न हो, इसलिए उन मुनियोंको तत्काल अपने पाससे विदा कर दिया ।
आचार्य धरसेन सफल शिक्षक और आचार्य थे। आचार्य वीरसेनजीने आचार्य धरसेनजीकी विद्वत्ता और पाण्डित्यका वर्णन करते हुए बताया है, कि आप परवादिरूपी हाथी के समूहके मदका नाश करनेवाले श्रेष्ठ सिंहके समान व सिद्धान्तरूपी श्रुतका पूर्णतया मन्थन करनेवाले थे। इतना नहीं आप १. सभी अंग और पूर्वोके एकदेश ज्ञाता थे । २. अष्टांग-महानिमित्तके पारगामी थे । ३. लेखनकलामें प्रवीण थे । ४. मन्त्र-तन्त्र आदि शास्त्रोंके वेत्ता थे । ५. महाकम्मपयडिपाहुडके वेत्ता थे । ६. प्रवचन और शिक्षण देनेकी कला में टु थे । ७. प्रवचनवत्सल थे । ८. प्रश्नोत्तर शैलीमें शंका-समाधानपूर्वक शिक्षा देनेमें कुशल १. पुष्पदंत मुनिका मूल नाम सुबुद्धि मुनि व भूतबलिका नाम नरवाहन मुनि था। परन्तु भगवान धरसेनाचार्यदेवसे शिक्षा प्राप्त करनेके पश्चात्, देवों द्वारा सुबुद्धि मुनिकी दंतपंक्ति ठीक करनेसे व नरवाहन निकी भूत जातिके देवोंने पूजा की होनेसे, क्रमशः उनका नाम आचार्य पुष्पदंत व भूतबलि पड़ा।
२. पुष्पदंत और भूतबलिकी बुद्धि परीक्षाके हेतु धरसेनाचार्यने दो मन्त्र षष्ठोपवास सह साधने हेतु दिये थे । उनमें एक मन्त्र अधिक अक्षरवाला था और दूसरा हीनाक्षर था । गुरुने उन मन्त्रोंको सिद्ध करनेका आदेश दिया। शिष्य मन्त्रसाधनामें संलग्न हो गये। जब मन्त्रके प्रभावसे उनकी अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित हुई तो एक देवीके दाँत बाहर निकले हुए थे और दूसरी कानी थी। देवता विकलाङ्ग नहीं होते; इसप्रकार निश्चय कर, उन दोनोंने मन्त्रसम्बन्धी व्याकरणशास्त्र के आधार पर मन्त्रोंका शोधन किया और मन्त्रोंको शुद्धकर पुनः साधनामें संलग्न हुए। वे देवियाँ पुनः सुन्दर और सौम्यरूपमें प्रस्तुत हुई, सिद्धिके अनन्तर वे दोनों शिष्य गुरुके समक्ष उपस्थित हुए और विनयपूर्वक विद्यासिद्धि सम्बधित समस्त वृत्तान्त निवेदित कर दिया। गुरु धरसेनाचार्य शिष्योंके ज्ञानसे प्रभावित हुए और उन्होंने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभवारमें सिद्धान्तका अध्यापन प्रारंभ किया ।
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