Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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परमागमश्री षट्खंडागमका उद्गमस्थान
प्रथम श्रुतस्कंधस्वरूप 'षट्खंडागम' शास्त्रके उद्गमस्थानका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है। इससे वाचकगण द्वादशांग जिनवाणीकी विशदता, गंभीरता व विस्तीर्णतासे अवगत हो सकें। इस प्रथम श्रुतस्कंधकी रचना सर्वप्रथम ज्येष्ठ शुक्ला - ५को पूर्ण हुई व इस दिन चतुर्विध संघने माँ जिनवाणीकी बहुत ही भावविभोर होकर पूजा - भक्ति की । तबसे यह दिन श्रुतपञ्चमीके रूपमें मनाया जाता है। पूज्य गुरुदेवश्री व पूज्य बहिन श्रीके पावन प्रतापसे उन पूज्य पुरुषोंके समयसे यह पर्व षट्खंडागमादि सिद्धान्तग्रंथोंकी पूजा भक्ति सह स्वर्णपुरीमें बहुत ही आनंदोल्लासपूर्ण मनाया जाता है ।
इस 'षट्खंडागम' ग्रंथमें आत्मा व कर्मके निमित्त - नैमित्तिक संबंधसे आत्माकी विविध अवस्थाओं द्वारा आत्माका विस्तृत स्वरूप बड़ी गंभीरतासे दिखाया गया है। ऐसे सिद्धान्तग्रंथोका हेतु व स्वाध्यायका फल सम्यग्ज्ञान- चंद्रिकाकार अनुसार अज्ञानका विनाश, सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति, प्रतिसमय अनन्त गुणश्रेणी निर्जरा होना, तदुपरांत बाह्य अभ्युदय तथा निःश्रेयसताकी प्राप्ति होना है। इस ग्रंथकी रचना विक्रमकी दूसरी शताब्दीमें हुई है. ऐसा विद्वानोंका मत है। यह कोई एक धारावाहिक अखंड ग्रंथ नहीं है । परन्तु इसके छहों खंड, १२ अंगके अलग-अलग पूर्वके विषयोंसे बना है। इसलिए यह छ खंडोंका एक 'षट्खंडागम' नामक ग्रंथ बना है। इस 'षट्खंडागम' शास्त्र पर भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवने 'परिकर्म' नामक टीका लिखी थी, जो वर्तमानमें अनुपलब्ध है। भगवान श्री वीरसेनाचार्यदेवने ई.स. ७७० से ८२७के बीच इस ग्रंथ पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण 'धवला' टीका लिखी है तथा भगवान श्री भूतबली आचार्यने इस ग्रंथके छटवे खंडकी ३०-४० हजार श्लोक प्रमाण 'महाधवल' नामक टीका लिखी है। ये सब ग्रंथाधिराज पूज्य गुरुदेव श्रीके पूर्व 'दर्शनीय' मात्र थे। कालकी कोई उत्तम विधिसे श्रुतलब्धिवंत पूज्य गुरुदेव श्रीके समयमें 'धवलादि' शास्त्र जो मूलप्रतके रूपमें गुप्त थे, वे प्रकाशित होकर प्रकाशमें आये ।
अतः ऐसे ग्रन्थके अध्ययनसे हम सबको उक्त फलकी प्राप्ति हो इसी भावनाके साथ 'षट्खंडागम' शास्त्रके उद्गमस्थानका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है।
महावीर भगवानकी दिव्यध्वनिको गौतम गणधर भगवन्तने १२ अंगोंमें निबद्ध की थी। उसमेंसे षट्खंडागमके कौनसे खंडोका कहाँसे उद्गम है, वह इस प्रकार है ।
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