Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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कि माघनन्दि मुनि एकबार चर्याक लिये नगरमें गये थे। वहाँ एक कुम्हारकी कन्याने इनसे प्रेम प्रकट किया और मोहवश वे उसीके साथ रहने लगे। कालान्तरमें एकबार संघमें किसी सैद्धान्तिक विषय पर मतभेद उपस्थित हुआ और जब किसीसे उसका समाधान नहीं हो सका तब संघनायकने
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જયદેવ
___ माघनन्दि कुम्हार अवस्थामें थे, उस समय उन्हें ज्ञान विषयक प्रश्न पूछते मुनिवर आज्ञा दी, कि इसका समाधान माघनन्दिके पास जाकर किया जाय। अतः साधु माघनन्दिके पास पहुँचे और उनसे ज्ञानकी व्यवस्था मांगी। माघनन्दिने पूछा, 'क्या संघ मुझे अभी भी सत्कार देता है ?' मुनियोंने उत्तर दिया ‘आपके श्रुतज्ञानका सदैव आदर होगा।' यह सुनकर माघनन्दिको पुनः वैराग्य हो गया और वे अपने सुरक्षित रखे हुए पीछी-कमुंडल लेकर दीक्षित होकर, पुनः संघमें आ मिले। 'एक ऐतिहासिक स्तुति' शीर्षकसे इसी कथानकका एक भाग बताते हुए व उसके साथ सोलह श्लोकोंकी एक स्तुति भी है। जिसमें कहा है, कि माघनन्दिने अपने कुम्हार-जीवनके समय कच्चे घड़ोंपर थाप देते समय गाते-गाते यह बनाया था। यदि इस कथानकमें कुछ तथ्यांश हो तो संभवतः वह माघनन्दि नामके आचार्योमेंसे उक्त आचार्यके सम्बन्धमें हो सकता है, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके अनेक शिलालेखोंमें आया है। इनमेंसे शिलालेख नं. १२९में बिना किसी गुरु-शिष्य सम्बन्धके माघनन्दिको जगत्प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदी कहा है। यथा
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