Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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पटेष
यतिसंमेलनमें आचार्य अर्हबलिजी द्वारा आचार्य माघनन्दिजीको नन्दिसंघका आचार्य बनाना
नमी नम्रजनानन्दस्यन्दिने माघनन्दिने।
जगत्प्रसिद्धसिद्धान्तवेदिने चित्प्रमोदिने ॥४॥ विद्वानोंके मतानुसार आप अंगांशधारी विद्वान आचार्य थे व आपका काल ई.स. ४८-८७ माना जाता है। यद्यपि आचार्य धरसेन भी आचार्य अर्हद्धलिके समकालीन व पूर्वधर थे, पर वे एकान्तप्रिय तपस्या करनेवाले थे, जबकि आ. माघनन्दि संघसंचालनमें कुशल होनेसे नन्दिगण आ. माघनन्दिके नामसे वृद्धिगंत हुआ। अतः आचार्य माघनन्दि व आचार्य धरसेनकी अलग-अलग पट्टावलियाँ दिखाई देती हैं। विद्वानोंका यह भी मानना है, कि हो सकता है, कि आपके गुरु आचार्यवर अर्हद्वलिके समकालीन होते हुए भी आप आचार्य अर्हद्धलिके शिष्य थे व आ. माघनन्दिके शिष्य आ. जिनचन्द्राचार्य होने चाहिए। मूलसंघकी पट्टावलियों व अन्य पट्टावलियों परसे विद्वानोंका मानना है, कि आचार्य माघनन्दिके पश्चात् आचार्य जिनचन्द्रदेवका व तत्पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्दका नाम होनेसे आचार्य माघनन्दिके शिष्य आचार्य जिनचन्द्र ही आचार्य कुन्दकुन्दप्रभुके गुरु होने चाहिए।
आचार्यदेव माघनन्दि भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
१. भगवान महावीर पश्चात् दिगम्बर जैनाचार्योंमें मूलसंघकी परम्परा विशेषकर कुछ शास्त्रोंमें उपलब्ध होती है। जैसे कि १. भगवान यतिवृषभाचार्यकृत तिलोयपण्णत्ति, २. भगवान श्री इन्द्रनन्दि आचार्यकृत श्रुतावतार, ३. धवला, ४. हरिवंशपुराण आदि। उनमेंसे कालादिके प्रमाणादि व इतिहास आदिके प्रमाणसे विद्वानोंका मानना है कि 'श्रुतावतार' ग्रंथमें दी गई मूलसंघकी पट्टावली ज्यादा योग्य प्रतीत होती है।
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