Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान
श्री गुणधर आचार्य
भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिमेंसे भगवान श्री गौतमस्वामीने १२ अंगकी रचना की थी ।
सम्यकूरत्नत्रयरूप प्रचुर स्वसंवेदनसे निज आत्मामें निरन्तर झूलनेवाले महायोगी भगवानश्री गुणधर आचार्यको १४ पूर्वमेंसे पाँचवे ज्ञानप्रवादपूर्वके अंशका ज्ञान था। उसके विविध प्राभृतों (पाहुडों) मेंसे 'पेजदोष' पाहुडका ज्ञान गुणधर आचार्यको प्राप्त था, जो आचार्योकी भाषामें कहें तो महासमुद्र तुल्य होता है। इतना ही नहीं इसके अतिरिक्त “धरसेनाचार्यको जिस ' महाकम्मपयडिपाहुड' का ज्ञान था, ' उसका भी आपको ज्ञान प्राप्त था। इससे यह ज्ञात होता है, कि आचार्य गुणधर भगवंत धरसेनाचार्य से भी विशेष ज्ञानी थे व पूर्वांशके ज्ञाता थे; इतना ही नहीं आचार्य धरसेनकी भांति आप भी श्रुत - प्रतिष्ठापक रहे हैं।
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आचार्य परम्पराके अनुसार पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके समय एक बड़ा भारी सम्मेलन (आचार्य - सम्मेलन ) हुआ। जिसमें सो योजन तकके यति ( मुनि भगवंत ) सम्मिलित हुए थे। उस समय यतियोंके भावानुसार महान आचार्यवर अर्हद्बलिने यतियोंकी परम्परा के अनुरूप नन्दिसंघ, सेनसंघ आदि विविध संघोकी स्थापना की थी । उसमें एक 'गुणधर संघ की भी स्थापना थी । इस परसे ज्ञात होता है, कि उस समय गुणधर आचार्यके परम्पराके शिष्योंकी संख्या अत्याधिक रही होगी, तथा गुणधर आचार्य इतने भावविशुद्धतामय होंगे, कि उनकी परम्परामें होनेवाले यतिवर्ग सब स्वयंको गुणधर आम्नायी माननेमें अपना गौरव समझते होंगे – अतः आचार्य अर्हद्बलिने उस संघका नाम 'सेन', 'नन्दि', 'घर' ऐसा न रखकर 'गुणधर संघ' रखा था।
टीका परसे ऐसा ध्वनित होता है, कि आचार्य परम्परामें सम्मिलित थे, किन्तु आचार्य से
'कसायपाहुड' की वीरसेनाचार्य कृत गुणधर भगवंत पूर्वविदों ( ' पूर्व' के ज्ञाता ) की भगवंत पूर्वविद् होते हुए भी पूर्वविदोंकी परम्परामें नहीं थे।
तउपरांत आचार्य गुणधर भगवंत ऐसे समयके आचार्य थे, कि पूर्वोके ज्ञानमें उतनी
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