Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव श्री भद्रबाहु (द्वितीय) तथा चन्द्रगुप्त (द्वितीय)
भगवान आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) इस कालके अंतिम ९ अंगके ज्ञाता आचार्य भगवंत थे। उनके पश्चात् कोई भी आचार्य इतने ज्ञाता नहीं हुए।
___आपके कुल-परिवारके बारेमें कहीं जानकारी नहीं मिलती। भगवान महावीरके पश्चात् आप तक करीब २६, ज्ञानध्यानमें धुरंधर आचार्य हुए, पर कतिपय आचार्योंके अलावा अन्य किसीके भी कुल-परिवारके बारेमें ज्ञात नहीं होता। मात्र आपका नाम आचार्य इन्द्रनन्दि कृत मूलसंघकी पट्टावलियोंमें प्राप्त होनेसे ज्ञात होता है। आचार्य भद्रबाहुका नाम, काल व सम्बन्ध राजा चन्द्रगुप्त(द्वितीय)से मिलान होता होनेसे आपके बारेमें यथातथा जानकारी मिलती है।
मौर्यवंशके प्रथम सम्राट , चन्द्रगुप्त (प्रथम)के वंशमें ही राजा चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का अपरनाम संप्रति हुए। वे अपने प्रौढ वयमें राजसिंहासन पर आसन्न हुए थे। उनकी बुद्धि
जिनधर्मके प्रति अति पिपासु थी। वे निरन्तर मुनि भगवन्तोंको आहारदान देने तत्पर रहते
थे।
राजा चंद्रगुप्त (द्वितीय)को एक रात्रिके अंतिम प्रहरमें १६ स्वप्न आये थे। वे उनका फल जाननेको उत्सुक थे। भगवान भद्रबाहुस्वामी (द्वितीय)का उधर विहार होने पर राजा चन्द्रगुप्त (द्वितीय)ने उन १६ स्वप्नोंके फल पूछने पर अष्टांग निमित्तज्ञानी आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय)ने निम्नरूपसे फलका वर्णन किया था। * स्वप्न १ : 'सूर्यास्त'का फल : अब इस पंचमकालमें भरतक्षेत्रसे केवलज्ञान सूर्यका
अस्त हो जायेगा। * स्वप्न २ 'कल्पवृक्षकी भग्न शाखा'का फल : राजा बुरे उद्देश्यसे संपत्तिका संग्रह करेंगे।
राज्यको छोड़कर वे तपको कुछ भी नहीं समझेंगे। परायी लक्ष्मीके संग्रह (अर्थात् छीना-झपटी)में लगे रहेंगे। (यह उत्सर्ग वर्णन समझना चाहिये, क्योंकि आचार्यवर समन्तभद्रके शिष्य बनारसके राजा ही थे, जिन्होंने तप (भगवती जिन दीक्षा) धारण की थी। ऐसे तो उदाहरण जिनागममें और भी उपलब्ध हैं।)
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