Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्य श्री प्रौष्ठिल अपरनाम चन्द्रगुप्त (प्रथम)
भारतीय इतिहासके प्रकाशस्तंभ रूप मौर्यवंशके प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त(चन्द्रसे रक्षित)को ही माना जाता है।
आपके कौटुम्बीकजन, माता-पिता आदिके विषयमें विशेष जानकारी ज्ञात नहीं हुई है, फिर भी आप बचपनसे ही खेल खेलमें अन्य बच्चोंके साथ स्वयम् राजा बन अन्य बालकोंको उसका अनुचर बनाना, न्याय करना आदि खेल खेलते थे। इससे इतना स्पष्ट है, कि आप शत्रुओंको नष्ट करनेमें पटु वीर योद्धा थे। आप मोरियवंशके होनेसे 'चन्द्रगुप्त मौर्य' कहलाये। ये क्षत्रियकुलके थे, परंतु साथमें उनका जैन मतानुयायी होना भी इतिहाससे प्रतीत होता है।
आप चाणक्यकी मददसे पाटलिपुत्र (हाल पटना)के, पूर्व उत्तरवर्ती सीमान्त प्रदेशोंसे लगाकर अवन्तिपुर (हाल उज्जैन) तक फैले मगधराज्यके सम्राट बने थे। आपका शासनकाल बहुत ही ऐतिहासिक महत्त्व रखता था। आपने आपके समयमें वर्तमान एशियाके कई इलाकोंके साथ व युनान आदि देशोंके साथ भी संधि व्यापार चलाया था। आपने सम्राट सिकन्दर जैसोंके हृदयको झकझोर देनेवाले लडाकू राजा पुरु आदिके साथ मित्रता की थी।
इतना होनेके बावजूद भी जिनागम ‘तिलोयपण्णत्ति' अनुसार जिन्होंने जिनेन्द्र भगवती मुनिदीक्षा धारण की, ऐसे आप अन्तिम मुकुटधारी राजा थे। आपके बाद कोई भी मुकुटधारी राजा दीक्षित नहीं हुए।
आपके समयमें इस हुण्डावसर्पिणीकालके पञ्चम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी (प्रथम) उज्जैनी नगरीमें पधारे थे। वे आहार लेने नगरमें पधारे, उस समय एक सूने घरमें मात्र कुछ दिनोंके बच्चेकी अवाज व करतूतोंसे अपने अष्टांग निमित्तज्ञान द्वारा भगवान भद्रबाहु स्वामी (प्रथम)ने जाना, कि उत्तर भारतमें १२ वर्षका भीषण अकाल पड़ेगा, कि जिससे सारे मगधमें कहीं भी मुनिचर्या यथायोग्य नहीं चल सकेगी। अतः भद्रबाहुस्वामी अपने १२५०० मुनिराजोंके संघ सहित दक्षिणके समुद्रतटीय इलाकोंकी ओर विहार कर गये।
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