Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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एक दिन उज्जयनी नगरीमें भगवान भद्रबाहुस्वामी जिनदास शेठके घर आहार लेने पधारे, वहाँ शून्य घरमें मात्र कुछ दिनोंका बालक झूलेमें झूल रहा था। उसके मुँहसे अनायास ही 'गच्छ, गच्छ' –जैसी ध्वनिसा आचार्यदेवको महसूस हुआ। शिशुकी भाषा द्वारा व झूलेमें, बालककी बालसहज हाथ आदिकी क्रियासे ही आचार्यदेवने निमित्तज्ञानसे जाना, कि दक्षिणकी ओर १२ वर्षका दुर्भिक्ष नहीं होगा, पर उत्तरमें अति भयानक १२ वर्षका 0 दुर्भिक्ष होगा। वे अन्तराय जानकर वहाँसे पलट गए। भद्रबाहु आचार्यने संघमें यह सब बातें बताकर इस ओर मुनिधर्मका निर्वाह न जानकर, दक्षिणकी ओर जानेका आदेश दिया।
यह जान सभी श्रेष्ठी श्रावक आचार्यदेवके पास आये, व उनसे अनुनय-विनय करने लगे और कहा, कि यहाँके श्रेष्ठी पूर्णरूपसे समृद्ध-धन-धान्ययुक्त हैं, जैनी या अन्य किसीको भी अकालमें बाधा नहीं होगी। १२ वर्ष तो देखते ही देखते पूरे हो जायेंगे; अन्यथा, बिना मुनि भगवंतोके तो हमारा जीना ही दुष्कर हो जाएगा आदि अनेक प्रकारसे निवेदन किया। पर आचार्य भगवंत एकसे दो नहीं हुए। तब श्रावकोने संघके अन्य मुनीन्द्रोंसे अर्ज की तो स्थूलीभद्रादि कुछेक १२५०० मुनि उत्तर भारतमें रुक गये व 'चन्द्रगुप्तादि १२५०० मुनि भगवंत भद्रबाहुस्वामीके साथ कर्णाटक देशकी ओर विहार कर गए। इस तरह सद्गुरु-ऐसे महासमर्थ आचार्य भगवंतकी आज्ञा न स्वीकारनेके फलस्वरूप, उत्तरमें रहा संघ धीरे-धीरे शिथिलताकी ओर धसता गया व परिणामस्वरूप श्वेतांबर मतकी उत्पत्तिकी नींव बनता गया। अतः गुरुआज्ञाको अपने हितके लिए, विनयी आत्मार्थी जीवोंको अवश्य शिरोधार्य करना चाहिए। वर्तमानमें भद्रबाहुस्वामी व चंद्रगुप्त मुनि भगवंतकी समाधि श्रवणबेलगोलाके चंद्रगिरि पर्वत पर बनी हुई है।
कई इतिहासकारोंके मत अनुसार उक्त भद्रबाहु भगवंतके अलावा मूलसंघकी पट्टावली अनुसार नौ अंगके ज्ञाता दूसरे भद्रबाहु भगवंत हुए हैं जिनको, परम्परामें क्रमशः आचार्यदेव लोहाचार्य, अर्हदली, माघनन्दि, जिनचन्द्र व कुंदकुंददेवके गुरु बताये जाते हैं। भद्रबाहु स्वामी भगवंत(प्रथम) एक महान द्वादशांगके ज्ञाता, प्रखर प्रबुद्ध आचार्य हो गये हैं, जो उनकी आन्तरिक आत्मपरिणतिकी प्रचुर निर्मलताको सूचित करती है।
आपका काल ई.स. पूर्व ३९४-३६५ माना जाता है।
१२ अंग-१४ पूर्वके ज्ञाता प्रथम भद्रबाहुस्वामीको कोटि-कोटि वंदन । १. भद्रबाहु आचार्य द्वारा जब राजा चंद्रगुप्तने निकृष्टकालके सम्बन्धमें जाना, तब उन्हें वैराग्य हो गया।
अत: वहाँके मुकुटबंधी राजा चंद्रगुप्तने आचार्य भद्रबाहुजीसे भगवती जिनदीक्षा धारण कर ली। २. कुछ इतिहासकारोंके मतानुसार उस समय उज्जैनमें १२००० मुनिभगवंतोंका संघ था उसमेंसे कुछ 10 भाग वहाँ रहा व कुछ भाग दक्षिणकी ओर प्रस्थान कर गया।
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