Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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वंदना आदि की, परंतु विशाखाचार्य व संघके मुनिपुंगव चन्द्रगुप्तको ऐसे भयानक जंगलमें १२ वर्ष तक रहकर साधना व महाव्रतोंका पालन असम्भव समझ उनको भ्रष्ट मुनि समझ बैठे।
तत्पश्चात् चन्द समयमें ही आचार्यदेवको ज्ञात हो गया, कि चन्द्रगुप्त यहाँ यथार्थ कान्तार-चर्यासे महातपस्वीरूप रहे हैं-अतः संघके सामने आपके तपकी भूरी-भूरी प्रशंसा की।
तत्पश्चात् मुनिराज चन्द्रगुप्तको ज्ञात हुआ, कि जहाँ अटवीमें आहारका योग हुआ था, वह जिनमन्दिरों, श्रावक-श्राविकाओंसे सुशोभित नगरी नहीं, परंतु मात्र व्यंतरदेवकृत रचना थी, कि जो आपकी तपश्चर्यासे प्रसन्न होकर व्यंतरदेवने रची थी।
परंतु देव-रचना अर्थात् देवकृत आहार लेनेसे आपने स्वयं ही आचार्यवर विशाखाचार्यसे आलोचना कर केशलोच आदि द्वारा नवीन दीक्षा धारण की। उन्होंने भद्रबाहुस्वामीके देहपरिवर्तन करनेके पश्चात् करीब १२ वर्षतक निरन्तर तपश्चर्या करते हुए अन्तमें वहीं समाधिमरण अंगीकार किया। यह स्थान कोई और नहीं, पर वर्तमान 'श्रवणबेलगोल' ही है, जो उस समय भयानक अटवी था। वह जगह आज भी आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) व मुनिराज चन्द्रगुप्त(प्रथम)की समाधिस्थलके रूपमें प्रसिद्ध है।
आपके समयमें कोई लेखित ग्रंथ रचना नहीं होती थी, इसलिए आपने कोई ग्रंथ रचना नहीं की। फिर भी आपकी महान तपश्चर्या व अकेले (अटूले) भयंकर बनमें १२ वर्षसे भी अधिक काल तक गुरुभक्तिमें संलग्नता ही, हम सबके लिये एक अनुकरणीय आदर्श है।
आपका दीक्षा नाम 'पौष्ठिल' व राज्यशासनका 'चन्द्रगुप्त' नाम-ऐसा प्रतीत होता है।
आपका काल ई.सन् पूर्व ३५५-३३६के बीच माना जाता है। कुछ लोगोंकी मान्यता ऐसी है, कि आप ही भगवान भद्रबाहु (प्रथम)के शिष्य विशाखाचार्य थे, परन्तु आपका जंगलमें गुरु-भक्तिसह रहना और ससंघ दक्षिण-पथकी ओर जाना, दोनोंका सुमेल नहीं होनेसे आप स्वयं विशाखाचार्य नहीं होंगे-ऐसा भी इतिहासकारोंका मानना है। जो कुछ भी हो आप एक महान गुरु-भक्त व हमारे लिए परम आदर्श तपस्वी थे, इसमें कोई विकल्प नहीं है। महान गुरुभक्त प्रौष्टिल आचार्यदेवको कोटि कोटि वंदन
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