Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
क्यहेव
१० १० ११
Raj
आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) के साथ मुनिराज प्रौष्ठिल सह मुनिसंघका दक्षिणकी ओर विहार
उस समय सम्राट चन्द्रगुप्त भी भविष्यकी ऐसी दुर्दशा देख अत्यंत वैरागी हो, आचार्यदेव भद्रबाहुसे भगवती जिनदीक्षा ( दीक्षा नाम प्रोष्ठिल ) धारण करके, अपने गुरु भगवानके साथ ही दक्षिण पथकी ओर विहार कर गये ।
रास्तेकी गहन अटवीमें आकाशवाणीके आधार पर भद्रबाहु स्वामीने अपनी आयु अल्प जान विशाखाचार्यको संघका भार सोंपकर उन्हें आगे दक्षिणदेश जानेका आदेश दिया। उस समय मुनिराज चन्द्रगुप्त अपने गुरुकी सेवामें वहीं रहे। वे जिस अटवीमें थे, वहाँ आहारकी विधि मिलना अत्यंत कठिन था । इतिहासकारोंके अनुसार उस समय, उस भयानक अटवीके व्यंतर देवताने प्रौष्टिल - चन्द्रगुप्त मुनिके तपश्चर्याकी कई परीक्षाएँ की, जिससे कई दिनों तक आपको आहारका योग नहीं हुआ, फिर भी आप शान्तभावसे अपने आत्मध्यानस्वाध्यायमें लीन रहे व अपने गुरुकी यथायोग्य वैयावृत्त्य करते रहे। आखिर एक दिन आपको आहारका योग मिल गया। तत्पश्चात् आचार्यश्री भद्रबाहुस्वामी ( प्रथम ) ने वहीं समाधि - मरण लिया। आप उनके चरण-चिह्नको आदर्श बनाकर वहीं महान तपश्चर्या करते रहे।
इतनेमें दुष्कालके १२ वर्ष पूर्ण हुए। विशाखाचार्यको ससंघ वापस पाटलीपुत्रकी ओर जाते समय, मार्गमें चन्द्रगुप्त मुनिराज मिले। मुनिराज चन्द्रगुप्तने आचार्यदेवकी यथायोग्य
(33)