Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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ग्रहण रहित होनेके कारण निर्ग्रथ; तथा ( ४ ) सदा निरंजन निज कारणसमयसार स्वरूपके सम्यक्
श्रद्धान, सम्यक् परिज्ञान और सम्यक् आचरणसे प्रतिपक्ष ऐसे मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्रका अभाव होनेके कारण निर्मोह; – ऐसे, परमनिर्वाणसुन्दरीकी सुन्दर माँगकी शोभारूप कोमल केशरके रज-पुंजके सुवर्णरंगी अलङ्कारको ( - केशर - रजकी कनकरंगी शोभाको ) देखनेमें कौतूहलबुद्धिवाले वे समस्त साधु होते हैं (अर्थात् पूर्वोक्त लक्षणवाले, मुक्तिसुन्दरीकी अनुपमताका अवलोकन करनेमें आतुर बुद्धिवाले समस्त साधु होते हैं ) ।
ऐसे साधु भगवंत निरंतर उपदेश देते हैं कि,
वीतरागं वीतरागं
निजस्वस्वरूपो
मुहूर्मुह मुर्णाति स गुरुपदं भासदि
जीवस्थ
वीतरागं । वीतरागं,
सदा ॥
अर्थ : 'जीवका निजस्वरूप वीतराग है', ऐसा बार बार उपदेश देते हैं, वह ही गुरुपदवीसे शोभित होता है।
भावार्थ : अट्ठाईस मूलगुण, बाईस परीषह, पंचाचार आदि सहित विराजमान, परमाणुमात्र बाह्य परिग्रह नहीं है और अंतरंग में भी परमाणुमात्र परिग्रहकी इच्छा नहीं
है, अनेक उदासीनभावोंसे विराजमान है और निज जातिस्वरूपको साधते हैं, सावधान हो समाधिमें लीन होते हैं । संसारसे उदासीन परिणाम किये हैं, ऐसे जो जैन साधु हैं; अपनेको तो वीतरागरूप अनुभवते ही हैं और मनको स्थिरीभूत करके जब किसीको उपदेश भी देते हैं तो, अन्य सब छोड़कर जीवके एक निज वीतरागस्वरूपको ही बार बार कहते हैं। उनके अन्य कुछ अभ्यास नहीं है, यही एक अभ्यास है। स्वयं भी अंतरंगमें स्वयंको वीतरागरूप अभ्यास करते हैं और बाह्यमें भी जब बोलते हैं, तब 'आत्माका वीतराग स्वरूप' है, यही वचन बोलते हैं। ऐसा वीतरागका उपदेश सुनते ही निकट-भव्यको निःसंदेहरूपसे निज वीतरागस्वरूपकी सुधि होती है। इसमें संशय नहीं है । जिस साधुके वचनमें ऐसा वीतरागका ही कथन है, उस जैन साधुको ही 'निकटभव्य' गुरु कहते हैं; क्योंकि अन्य कोई पुरुष
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