Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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वहाँ सागरदत्त मुनिको देख उन्हें सहज प्रेम आ रहा था। उसका कारण मुनिराजसे जाना, कि वे और कोई नहीं, उनके पूर्वभवके बड़े भाई भगदत्तके जीव ही हैं, अतः राजकुमारको उनके प्रति अनायास ही प्रेम आ रहा है। राजकुमार अपने पूर्वभवके वृत्तांत जान, मुनिराजसे दीक्षा ग्रहण करके कठिन तपके बल ब्रह्मस्वर्गके विद्युन्माली देव हुये।
भगवान महावीर स्वामीके कालमें ही राजा श्रेणिककी राजगृही नगरीमें अर्हदास नामक श्रेष्ठी थे। उनकी प्रियकारी जिनदासी नामा पत्नी थी। वे राजा श्रेणिकके राज्यके जानेमाने श्रेष्ठी थे। उन श्रेष्ठीकी पत्नी जिनदासीके गर्भमें विद्युन्मालीदेव (भवदेवका जीव) ब्रह्मस्वर्गसे चयकर आया। तभी माताको पांच शुभ स्वप्न आये। उसके फलस्वरूप मातापिताने निर्णय किया, कि उनका यह पुत्र चरमशरीरी होगा। जन्म लेने पर उसका नाम जम्बूस्वामी रखा गया।
जंबूस्वामी दिन दूने रात चौगुने, पुण्यके भंडार सह बड़े होते गये। इसी भाँति वे नगरजनों व माता-पिताको प्रसन्न करते थे। 'स्वामी' जहाँ भी जाते अपनी बुद्धि, चातुर्य व यशोगान-प्रभासे सबको आनंद देते थे। उन्होंने राजा श्रेणिक तकको प्रसन्न कर दिया था।
एकबार 'स्वामी' कुमार अवस्थामें थे। तब राजा श्रेणिक मुनिवंदना हेतु जंगलमें गए हुए थे। तब उनका मानीता(सम्मानिय) हाथी पागल हो गया था। सारा नगर उस पागल हाथीको देख सहम-सा गया था। तब बच्चोंके साथ खेलते हुए चुटकीमें 'स्वामी'ने हाथीको
જયદે:
जम्बूस्वामी द्वारा पागल हाथीको वशीभूत करना
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