Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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रूप बनाकर गौतमके महाविद्यालयमें गया। वहाँ जाकर उसने विनयपूर्वक कहा, कि 'मैं महावीरका शिष्य हूँ। मुझे एक श्लोकका अर्थ समझना है। मेरे गुरु फिलहाल मौनमें हैं। अतः मैं उसका अर्थ आपसे समझने आया हूँ।' इस पर गौतमने बड़े प्रेमसे श्लोक पूछा। तब ब्राह्मणवेषधारी इन्द्रने कहा :
(स्रग्धरा) त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्-काय-लेश्याः । पञ्चान्ये चास्तिकाया व्रत-समिति-गति-ज्ञान-चारित्रभेदाः॥ इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितेः प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः। प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः॥
__उक्त काव्य सुनकर गौतम आश्चर्यान्वित होकर, श्लोकका अर्थ नहीं समझ पानेसे, उक्त वामनरूपी इन्द्रको शिष्य बनानेके चक्करमें, अभिमानसे उसने इन्द्रको कहा, इसका अर्थ तूं नहीं समझेगा, तेरे गुरु कहाँ हैं ? वहीं चल, उनको ही समझाउँगा, कहकर वह इन्द्रके साथ समवसरणमें आया। वहाँ समवसरणका मानस्तंभ देखते ही उसका मान दूर हो गया
और (गृहीत) मिथ्यात्व तक छूट गया। चातक पक्षीकी भाँति भगवानकी वाणी सुनने हेतु, भगवानकी महिमायुक्त भाववाही भक्ति करते हुए, उसने भगवानके समवसरणकी आठवीं भूमिमें प्रवेश किया। भगवानको देखकर उसे सर्वज्ञत्व व जीवके अस्तित्वकी श्रद्धा
बृहद्रूपसे जम गई। उन्होंने वहीं गौतमका मानस्तंभ दर्शन
सम्यक्त्वसहित संयमपना अंगीकृत
किया। भगवानकी दिव्यध्वनि खिरी, (20)