Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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के. आर. चन्द्र
(२) पंचमुष्टिलोच करने के बाद सिद्धों को नमस्कार करना और सर्व पापकर्म अकरणीय है ऐसा सोचकर 'सामायिक चारित्र' धारण करना ये (७६६ ) दोनों बातें कल्पसूत्र (११४) में नहीं आती हैं। कल्पसूत्र में तो मुंडन करवाकर अगार से अनगार बनने का ही उल्लेख है जो कल्पसूत्र के सूत्र १ में भी प्रारम्भ में उल्लिखित है और वैसा ही उल्लेख आचारांग में भी प्रारम्भ में (७३३) आता है। आचारांग में आगे सू० ७६९ में जब उन्हें मनःपर्यय ज्ञान होता है तब 'सामायिक युक्त क्षायोपशमिक चारित्र' का उल्लेख है।
(३) हत्थुत्तराहिं और मुंडे भवित्ता (७३३) के बीच 'सव्वतो सव्वत्ताए' का पाठ अधिक है।
(४) महाविजयसिद्धत्थपुप्फुत्तरवरपुंडरीयदिसासोवत्थियवद्धमाणातो महाविमाणाओ....... चुते (७३४) (रेखांकित पाठ अधिक है )।
(५) जन्म के समय जो वर्षा हुई उसमें अमृतवास का उल्लेख कल्पसूत्र में नहीं है (७३८) ।
(६) प्रव्रज्या का लोच करते समय सिंहासन पर एवं पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठने का उल्लेख कल्पसूत्र में नहीं है (७६६) ।
(७) केवलज्ञान के समय 'झाणंतरियाए वट्टमाणस्स' (कल्पसूत्र १२०) के बदले आचारांग (७७२) 'सुक्कझाणंतरियाए वट्टमाणस्स' में आता है।
(८) उड्ढं जाणुं अहो सिरस' (७७२) का उल्लेख कल्पसूत्र में नहीं है। (९) ऋजुबालिका के मात्र तीर के बदले उसे उत्तर कूल (७७२) कहा गया है ।
(१०) चैत्य के आसपास के बदले उत्तर-पूर्व दिशा भाग (७७२) कहा गया है। २ (च) आचारांग में देव-कृत्य का सारा का सारा प्रसंग बाद में जोड़ा गया है
(१) यह पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है कि एक वर्ष तक दान करने का एवं अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय वाले हुए ये दोनों बातें बाद में जोड़ी गयी हैं । इसके बाद में आने वाली सारी सामग्री (सू० ७४७ से ७६५, जिसमें बढ़ा-चढ़ा तथा कभी-कभी अलंकृत वर्णन है) भी बाद में जुड़ी है। उसमें १७ गाथाएँ हैं जिनकी भाषा अर्धमागधी न होकर महाराष्ट्री है एवं उनका छन्द विकसित गाथा छन्द है। (ये गाथाएँ नियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य में भी मिलती हैं) इन गाथाओं के अलावा जो गद्यांश है और उसमें जो वर्णन उपलब्ध है यह कल्पसूत्र (११०-११४) में नहीं मिलता है। इसमें सभी देवताओं का आगमन, शक्रेन्द्र द्वारा दिव्य सिंहासन की रचना, भगवान् का अभिषेक, उन्हें आभूषणों से सजाना, शिविका में देवेन्द्रों द्वारा चवर डुलाना इत्यादि मिलता है।
सूत्र ७६७ एवं ७६८ की दो गाथाएँ भी इसी प्रकार बाद में जोड़ो गयी प्रतीत होती हैं। उनमें कहा गया है कि जब भगवान् ने चारित्र्य धारण किया तब देवों एवं मनुष्यों का घोष शान्त हो गया था तथा देवों के द्वारा उपदेश सुना गया जो कि दीक्षा लेने के ठीक पश्चात् तथा केवल ज्ञान को प्राप्ति के पूर्व की घटना है और उस पद्य में (कुछ पाठ रह गया हो ऐसा लगता है ) त्रुटियाँ भी हैं। कल्पसूत्र में ऐसे उल्लेख नहीं हैं।
(३) इसी देव-कृत्य एवं देव-महिमा के प्रसंग पर भगवान् महावीर को तीर्थंकर कहा गया है (७५०) । वैसे ही कल्पसूत्र में भी जो बाद का पाठ है वहाँ (सू० २) उन्हें चरम तीर्थंकर कहा गया
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