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सनत्कुमार चक्रवर्तीकी कथा
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क्यों न हो उसे देखते-देखते नष्ट करके शरीरको क्षणभर में मैं निरोग कर सकता हूँ ।" देखकर सनत्कुमार मुनिराजने उसे बुलाया और पूछा तुम कौन हो ? किसलिये इस निर्जन वनमें घूमते फिरते हो ? और क्या कहते हो ? उत्तरमें देवने कहा- मैं एक प्रसिद्ध वैद्य हूँ । मेरे पास अच्छीसे अच्छी दवायें हैं । आपका शरीर बहुत बिगड़ रहा है, यदि आज्ञा दें तो मैं क्षणमात्रमें इसकी सब व्याधियाँ खोकर इसे सोने सरीखा बना सकता हूँ । मुनिराज बोले- हाँ तुम वैद्य हो ? यह तो बहुत अच्छा हुआ जो तुम इधर अनायास आ निकले। मुझे एक बड़ा भारी और महाभयंकर रोग हो रहा है, मैं उसके नष्ट करनेका प्रयत्न करता हूँ पर सफल प्रयत्न नहीं होता । क्या तुम उसे दूर कर दोगे ?
देवने कहा -- निस्सन्देह मैं आपके रोगको जड़ मूलसे खो दूंगा । वह रोग शरीर से गलनेवाला कोढ़ ही है न ।
मुनिराज बोले-नहीं, यह तो एक तुच्छ रोग है । इसकी तो मुझे कुछ भी परवा नहीं। जिस रोगकी बाबत मैं तुमसे कह रहा हूँ, वह तो बड़ा ही भयंकर है ।
देव बोला -- अच्छा, तब बतलाइये वह क्या रोग है, जिसे आप इतना भयंकर बतला रहे हैं ?
मुनिराजने कहा – सुनो, वह रोग है संसारका परिभ्रमण । यदि तुम मुझे उससे छुड़ा दोगे तो बहुत अच्छा होगा । बोलो क्या कहते हो ? सुनकर देव बड़ा लज्जित हुआ। वह बोला, मुनिनाथ ! इस रोगको तो आप ही नष्ट कर सकते हैं । आप ही इसके दूर करनेको शूरवीर और बुद्धिमान हैं । तब मुनिराजने कहा- भाई, जब इस रोगको तुम नष्ट नहीं कर सकते तब मुझे तुम्हारी आवश्यकता भी नहीं । कारण - विनाशीक, अपवित्र, निर्गुण और दुर्जन के समान इस शरीर की व्याधियों को तुमने नष्ट कर भी दिया तो उसकी मुझे जरूरत नहीं । जिस व्याधिका वमनके स्पर्शमात्र से ही जब क्षय हो सकता है, तब उसके लिये बड़े-बड़े वैद्य - शिरोमणिकी और अच्छी-अच्छी दवाओंकी आवश्यकता ही क्या है ? यह कहकर मुनिराजने अपने वमन द्वारा एक हाथके रोगको नष्टकर उसे सोने-सा निर्मल बना दिया । मुनिकी इस अतुल शक्तिको देखकर देव भौंचक रह गया । वह अपने कृत्रिम वेषको पलटकर मुनिराज से बोलाभगवन् ! आपके विचित्र और निर्दोष चारित्रकी तथा शरीर में निर्मोहपनेकी सौधर्मेन्द्रने धर्मप्रेमके वश होकर जैसी प्रशंसा की थी, वैसा ही मैंने
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