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धवल मंगलगान रवाकुले
-ले. जस्टिस एम. एल. जैन
पूजा के सिलसिले में जब सामान्य अर्घ्य चढ़ाया जाता है तो प्रायः यह पद्य बोला जाता है
उदक चन्दन तन्दुल पुष्पकैः, चरु सुदीप सुधूप फलार्यकैः
धवल मंगल गान रवाकुले, जिन गृहे जिननाथ महं यजे। यह पद्य नगण, भगण, भगण और रगण के संयोजन से बने द्रुत विलम्बित छन्द में हैं। कुछ लोग जिननाथम् की जगह जिनराजम् या जिननामम् भी पढ़ते हैं।
पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री ने इसका अर्थ यों किया है
मैं प्रशस्त मंगलमान के (मंगलीक जिनेन्द्र स्तवन के) शब्दों से गुंजायमान जिन मंदिर में जिनेन्द्र देव का जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल तथा अर्घ से पूजन करता हूँ। (ज्ञानपीठ पूजाञ्जजि, 1957, पृ. 28)
डा. सुदीप जैन ने 'जिननाथम्' के स्थान पर 'जिननामम्' पाठ के साथ इसका अर्थ इस प्रकार लिखा है-उदक (जल), चन्दन, तंदुल (अक्षत), पुष्प, चरु (नैवेद्य), दीप, धूप, फल और अर्घ्य (अष्ट द्रव्यों का सम्मिलित रूप) के द्वारा निर्मल भावों से मंगल पाठों को पढ़ते हुए मैं जिन मंदिर में जिनेन्द्र परमात्मा के सहस्र नामों का स्तवन। पूजन करता हूँ।
(नमन और पूजन, 1996, पृ. 155) - इसी प्रकार का अर्थ प्रायः किया और समझा जाता है, परन्तु उक्त दोनों ही अर्थो में 'धवल मंगल' का अर्थ सही नहीं हो पाया है। यहाँ पर धवल का अर्थ प्रशस्त या निर्मल और मंगल का अर्थ मंगलीक जिनेन्द्र स्तवन या मंगल पाठों का पढ़ना नहीं है।
दरअसल यहाँ पर धवल मंगल गान से अभिप्राय है-धवल और मंगल शास्त्रीय रागों में गाया गया संगीत । मंदिरों में प्रभात के समय इन दोनों रागों का प्रयोग होता है। पूजा का समय भी प्रायः दिन के पहले भाग में ही होता है।
शास्त्रीय संगीत को हम बोलचाल की भाषा में पक्का गाना बोलते हैं। शास्त्रीय संगीत के मुख्य छह राग हैं-भैरव, कैशिक, हिण्डोल, दीपक, श्री और मेघ । संगीत साहित्य में इनको मानव की तरह मानकर इनके परविार में हरेक की 6-6 के हिसाब से 36 रागनियाँ मानी जाती हैं मानो राजा की रानियाँ ।
सा (षड्ज), रे (ऋषभ), ग (गान्धार), म (मध्यम), प (पञ्चम), ध (धैवत) और नि (निषाद) ये सप्त स्वर (सात सुर) होते हैं। इनके क्रमिक आरोह-अवरोह