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58/3 अनेकान्त/59 इसी भक्ति-आंदोलन से संभवतः शकित होकर जिनसेनाचार्य ने भक्तिवादियों की मान्यताओं को जैन-रूप दिया। संक्षेप में कुछ रूप आदिपुराण से ही ग्रहीत हैं, जो निम्न प्रकार हैं -
1. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये सनातन धर्म हैं। 5-23 2. ऋषभ ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। 14-37
3. शिव को मानने वाले उनकी आठ मूर्तियाँ मानते हैं। जिनसेनाचार्य ने ठीक उसी प्रकार की आठ मूर्तियों की विद्यमानता ऋषभदेव में घटित की है। 14-47
4. आदिनाथ के दस भवों को दशावतार कहा है। विष्णु को मानने वाले विष्णु के दस अवतार मानते हैं। ऋषभदेव भी उनमें से एक हैं। 14-51, 14-104 5. द्वादशांग जिन-श्रुत को आचार्य ने वेद की संज्ञा दी है। 24-39
गंगाजल 6. गंगाजल को जिनसेनाचार्य ने पवित्र बताया है। उसी से आदिनाथ का अभिषेक किया गया था, यद्यपि उनका शरीर स्वयं ही पवित्र था।
7. गंगा ऋषभदेव की वाणी के समान पवित्र है। 27-3
ऐसा जान पड़ता है कि भक्ति-आंदोलन के प्रभाव से बचाने के लिए आचार्य ने ये नई व्याख्याएँ की होंगी। जो भी हो उनके युग की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों का परिचय तो उनसे मिलता ही है।
उधर तमिलगम और केरल में आचार्य के युग में भी जैन-चरितों यथा जीवक चिंतामणि-जीवंधरस्वामीचरित का शैवों द्वारा पठन को लेकर शैवों में चिंता बढ़ती जा रही थी। उसकी परिणति पेरियपुराणम् के रूप में हुई। इस पुराण के नाम का अर्थ भी महापुराण है। उसमें भी आदिपुराण और उत्तरपुराण की भाँति 63 शैव और वैष्णव-भक्तों का परिचय है। जैन-महापुराण में 63 शलाकापुरुषों या श्रेष्ठ पुरुषों का चरित्र वर्णित है।
-बी-1/324, जनकपुरी,
नई दिल्ली-110058