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अनेकान्त / ५८
जो शुद्ध नय तक पहुँचकर श्रद्धा - ज्ञान - चारित्रवान् हो गये हैं अर्थात् परमभावदर्शी है, उनको तो शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है किन्तु जो अपरमभाव मे (गृहस्थ की अपेक्षा पाचवें गुण स्थान तक तथा मुनि की अपेक्षा छठवें व सातवे गुणस्थान मे ) स्थित हैं, उनके लिए व्यवहार का उपदेश किया गया है।
व्यवहार नय को समयसार जैसे शुद्ध अध्यात्म एवं विशुद्ध ध्यान विषयक ग्रन्थों में अभूतार्थ भी कहा गया है, जिसका अर्थ असत्यार्थ भी किया गया है। इसका मतलब यह ही है कि जब योगी शुद्धोपयोग की अवस्था में पहुँचता है, उसकी अपेक्षा यह अप्रयोजनभूत है। इसका आशय यह नहीं है कि यह सर्वथा असत्यार्थ है । अपने विषय की अपेक्षा अथवा प्रमाण की दृष्टि में वह भी उतना ही भूतार्थ है, जितना कि निश्चय । आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने आत्मख्याति में बतलाया है कि जब कमल को जल- सम्पृक्त अवस्था की दृष्टि से देखते हैं तो कमल जल मे है, यह व्यवहार कथन भूतार्थ है । जब जल की तरफ दृष्टि न करके मात्र कमल को देखते है तो कमल जल से भिन्न है, यह निश्चय कथन भूतार्थ है । वास्तविकता यह है कि कोई नय न तो सर्वथा भूतार्थ है और न अभूतार्थ । प्रयोजनवश ही किसी नय की सत्यार्थता होती है 1 प्रयोजन निकल जाने पर वही अभूतार्थ, असत्यार्थ कहलाता है। यदि व्यवहार नय सर्वथा अभूतार्थ होता तो उसे अनेकान्त सम्यक् प्रमाण के भेदो मे स्थान कैसे मिलता ?
नय चाहे व्यवहार हो या निश्चय, सभी नयवादों को पर समय कहा गया है। देखिये
" जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंतिं णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया । ।