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अनेकान्त/५९
ऊपर परमार्थ परमावि की चर्चा की है । परमभाव मे स्थित मुनि है । इस विषय में स्थान-स्थान पर आचार्यो ने स्पष्टीकरण भी किया है, देखिए
"मोत्तूण णिच्छयट्ठ ववहारेण विदुसा पवट्ठति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ होदि । । ( समयप्राभृत) “णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं" ।
निश्चय नय-परक अध्यात्म ग्रन्थो की रचना आ कुन्दकुन्द आदि महर्षियों ने श्रमणों को लक्ष्य में रखकर की है । यथास्थान "मुने" आदि सम्बोधन पदों का प्रयोग भी किया है । इस शैली के पात्र वस्तुत ससार, शरीर और भोगों से अन्तकरण से एवं बाह्य रूप से विरक्त साधु ही है । इसका अर्थ यह नही लेना चाहिए कि इन ग्रंथो को गृहस्थ को पढना ही नहीं चाहिए, अपितु ये ग्रन्थ ऊपर बताये गये भाव को अर्थात् मुनिपरक उपदेशता को ध्यान में रखकर ही अध्ययनीय है। इस सावधानी से अध्यात्म का हार्द समझने में चूक न होगी ।
व्यवहारनय बाहरी फोटो के समान पदार्थ का चित्रण करता है, निश्चयनय एक्सरे के फोटो के समान अन्तरग एव निर्लिप्त चित्रण करता है । आ कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है कि जिस प्रकार अनार्य भाषा के बिना म्लेच्छ को समझाना अशक्य है, उसी प्रकार बिना व्यवहार के निश्चय का उपदेश अशक्य है। जिस प्रकार अक्षर के भेद-प्रभेद रूप विन्यास के बिना बालक को सर्वप्रथम अक्षरज्ञान नही हो सकता, अपितु उसे 'अ' के पेट, चूलिका, दण्ड, रेखा ( ) । -} अलग अलग बताने पडते है तथा उन अवयवों से ही 'अ' बनता है, उसी प्रकार व्यवहार नय प्राथमिक जीवो को उपयोगी है एव व्यवहार भेदों के एकत्रीकरण से ही निश्चय का स्वरूप बनता है ।
व्यवहार निश्चय का साधन है
निश्चय साध्य है, व्यवहार साधन है। आचार्य अमृतचन्द्र जी ने भी तत्त्वार्थसार मे कहा है -