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अनेकान्त/६०
निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थित: । तत्राद्य: साध्यरूप स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनः । ।
एक ही मोक्षमार्ग दो प्रकार हैं १ निश्चय २ व्यवहार । निश्चय साध्य है, व्यवहार साधन है। बिना व्यवहार के निश्चय की सिद्धि त्रिकाल में सम्भव नहीं है । द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र मे माइल्लधवल कहते हैं
णो ववहारेण विणा णिच्छयसिद्धी कया विणिद्दिट्ठा । साहणहेऊ जम्हा तम्हा य भणिय सो ववहारो ।।
आ अमृतचन्द्र जी ने पंचास्तिकाय की टीका में (गाथा नं १६७ से १७२ तक) इस साध्य - साधन भाव को दृढता से प्रतिपादित किया है, तीनों रत्नो को (व्यवहार व निश्चय ) दोनो रूपो में मान्यता दी है । व्यवहार को निश्चय का बीज लिखा है। यानी व्यवहार ही निश्चय रूप में परिवर्तित हो जाता है । जो निश्चय और व्यवहार में किसी एक का भी पक्षपात करता है, वह देशना का फल प्राप्त नहीं करता । निष्पक्षता ही फल की उत्पादक है। कहा भी है
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व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ: । प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्यः । । ( पुरुषार्थसिद्धि)
किसी नय की अवहेलना वस्तु तत्त्व की अवहेलना है। नय तो जानने के लिए दो आखो के समान है। समय-समय पर प्रत्येक नय आता है । आ अमृतचन्द्र स्वामी ने गोपिका के उदाहरण से अनेकान्तमय जैनी-नीति को प्रस्तुत किया है। 1
एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण ।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी ।। ( २२५ पुसि )