Book Title: Anekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 227
________________ अनेकान्त/६३ प्रमाण के अंश हैं। इनका लक्ष्य एक ही पदार्थ होता है, किन्तु उभयाभासी दोनों को स्वतन्त्र रूप से मानकर दो मोक्षमार्ग मानता है। ऐसा उभयाभासी सच्ची प्रतीति से अनभिज्ञ है । उपर्युक्त प्रकार नयों के दुरुपयोग देखने में आते हैं । समीचीन दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति व्यवहार को साधन और निश्चय को साध्य मानता है। वह जानता है कि मोक्षमार्ग एक है, उसके दो पहलू हैं । कहा भी है एष ज्ञानधनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधनभावेन द्विधैकं समुपास्यताम् ।। ( समयसार कलश - १५३) जो सिद्धि के इच्छुक हैं उन्हें साध्य-साधन भाव से दो रूपों को धारण करने वाले किन्तु वस्तु रूप से एक आत्मा की सम्यक् उपासना करना चाहिए। मुमुक्षु को न निश्चय का पक्ष है, न व्यवहार का । वह बाह्य धर्मसाधन करते हुए अन्तरंग भाव विशुद्धि पर ध्यान रखता है तथा क्रम को स्वीकार कर पहले पाप को छोडकर पुण्य का निष्ठावान् होकर आचरण करता है । पश्चात् जब शुद्धोपयोग में स्थित हो जाता है तो ऐसी परम मुनिदशा में पुण्य भी अपने आप छूट जाता है। पाप को प्रयत्न पूर्वक, नियम आदि करके छोडना पडता है किन्तु पुण्य के विषय में ऐसा नहीं है । पाप और पुण्य में कर्म सामान्य अपेक्षा समानता होने पर भी बडा अन्तर है । आ कुन्दकुन्द बारस- अणुवेक्खा में कहते हैं वर वय तवेहि संग्गो मा दुक्खं होइ गिरइ इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालं ताण गुरुभेदं । । स्वामी समाधिशतक में कहते हैं आचार्य पूज्यपाद अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः । । (८४) -

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