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अनेकान्त / ६२
उत्साही नहीं होता । नियतिवाद, क्रमबद्धपर्यायत्त्व और कूटस्थता के एकान्त-स्वर से पीड़ित रहता है । समय प्राभृतादि अध्यात्म के उपदेश का अनर्थ कर, सम्यग्दृष्टि अबन्धक है एवं वह भोगों से निर्जरा को प्राप्त होता है, ऐसा श्रद्धान कर भोग व पाप से विरक्त नहीं होता ।
शुभोपयोग को किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग का साधक नहीं मानता। व्यवहार को निश्चय का साधक नहीं मानता। प्रथम ही निश्चय मोक्षमार्ग तथा बाद में, व्यवहार का सद्भाव मानता है । व्यवहार के कथन को अवास्तविक मानता है, कहता है कि यह कहा है, ऐसा है नहीं । विवक्षा को नहीं समझता। शुद्धोपयोग के गीत गाता हुआ, अशुभ परिणामों से नरकादि कुगति का पात्र होता है। इस प्रकार निश्चयाभासी स्वयं तो अपनी हानि करता ही है, साथ ही समाज को भी डुबो देता है ।
व्यवहारैकान्त जिसको निश्चय नय के द्वारा वस्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं है, मात्र बाहरी क्रियाकाण्ड को धारण करता है, देखादेखी और भाव के बिना अर्थात् बिना किसी निर्धारण के तप-संयम अंगीकार करता है, जिसको अपनी भाव - परिणति बिगडती रहने का भय नहीं है, अन्तरंग में कषाय को शान्त करने के लिए ज्ञान की उपयोगिता की उपेक्षा करता है, जो बिना मोक्षलक्ष्य के देवपूजा आदि षट्कर्म तथा बाह्य तपश्चरण को ही साक्षात् मोक्षमार्ग-रूप सर्वस्व समझकर अपने को धर्मात्मा मानता है, चारित्र की विशुद्धि में कारण दर्शन-- ज्ञान की ओर जिसका लक्ष्य नहीं है, जिसके मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत सात तत्त्वों को जानने का विचार नहीं है, व्यवहार के द्वारा साध्य निश्चय आत्म स्वरूप का जिसे ज्ञान नहीं है, वह व्यवहाराभासी है । यद्यपि ऐसे मनुष्य से समाज को हानि नहीं है तथा पुण्य कार्यो से सम्पादन से लाभ भी है तथापि व्यवहाराभासी मोक्ष का पात्र नहीं है I
उभयाभास जो व्यवहार और निश्चय दोनों को अलग-अलग मोक्षमार्ग मानता है वह उभयाभासी है । व्यवहार और निश्चय ये दोनों
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