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अनेकान्त/५७
अन्य दृष्टि से व्यवहार के निम्न ४ भेद है। १ अनुपचरित शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय-जैसे जीव के केवलज्ञान आदि
गुण हैं।
२ उपचरित अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय-जैसे जीव के मतिज्ञान आदि
विभाव गुण हैं। ३ अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय-संश्लेष सहित शरीरादि पदार्थ जीव
के हैं।
४ उपचरित असद्भूत व्यवहारनय-जिनका संश्लेष सम्बन्ध नहीं है, ऐसे पुत्र, मित्र, गृहादि जीव के हैं।
उपर्यक्त प्रकार से दोनो नयों का सक्षेप से स्वरूप वर्णन मिलता है।
जीवादिक पदार्थो के परिज्ञान के लिए प्रमाण और नयों की उपयोगिता है। जिस प्रकार हम किसी वस्तु को हर पहलू से घुमा-फिराकर देखते हैं उसी प्रकार विभिन्न नयों या दृष्टिकोणों से समन्वित रूप से हमें जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों को जानना आवश्यक है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अत किसी एक ही नय द्वारा उसका सर्वागीण ज्ञान अशक्य है। हॉ. अर्पितानर्पितसिद्धेः, इस वचन के अनुसार किसी नय को किसी समय में मुख्य और किसी को गौण करना पड़ता है। नयों को चक्षु की उपमा दी गई है।
नय योजना - कौन सा नय किस अवस्था में प्रयोजनीय है, इसे दृष्टि मे रखकर आ कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं -
सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।।१२।।