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अनेकान्त/१३ वीतरागी एवं अपरिग्रही जिनधर्म की प्रभावना हो रही है? यह सर्वाधिक चिन्तनीय है।
__ अच्छा होता कि हमारे साधु परमेष्ठी उन प्राच्य सस्थाओ की स्थितिकरण मे प्रवृत्त होते, जहाँ से सैकडो विद्वान् तैयार होकर जिन-शासन की सेवा में सन्नद्ध हुए हैं। हमारे सुनने में अब तक नहीं आया कि अमुक आचार्य ने किसी संस्था को पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए कोई ठोस-प्रेरणा की हो। पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी की प्रेरणा से स्थापित अनेक संस्थायें काल-कवलित हो चुकी है या समाप्ति की ओर हैं। इन प्राच्य संस्थाओ पर ऐसे लोग काबिज हो गए है, जिन्हे न जिन-परम्परा से कुछ लेना-देना है और न ही उन संस्थाओ को चलाने की उनकी कोई दृढ इच्छा शक्ति है। हाँ, साधूओ की प्रेरणा से नई-नई संस्थाओ का सृजन अवश्य हो रहा है, वह भी लाभ-हानि की तर्ज पर।
इसी प्रकार नए-नए तीर्थो की परिकल्पनाओ और उन्हे मूर्त स्वरूप प्रदान करने मे हमारे साधुगण जिन अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयों की प्रतिकृतियां निर्मित करवा रहे है, वे क्या अकृत्रिम स्वरूप बन पाते है? कदाचित् बन भी जाए. तो भी कहलायेगी तो कृत्रिम ही। फिर, ध्यान देने की बात यह भी है कि हमारे अनेक प्राचीन तीर्थ विवादो के घेरे मे है। शाश्वत तीर्थ श्री सम्मेद शिखर का विवाद चल रहा है। पावापुरी तीर्थ पर विवाद है। उन तीर्थक्षेत्रो की रक्षा और उसके समुन्नयन के प्रति किसी साधु की चिन्ता न देखकर दु ख होता है। कृत्रिम रूप से निर्मित होने वाले तीर्थो के प्रति अति-उत्साह और प्राचीन तीर्थो के प्रति उदासीनता कालान्तर मे उनके अस्तित्व को ही प्रश्नचिन्ह लगाती दिखती है। जीवन्त-तीर्थ हमारी परम्परा के पोषक है। यदि इन तीर्थों की रक्षा न हो सकी तो हम अपनी परम्परा की रक्षा में भी समर्थ नहीं हो सकेगे। इतना ही नहीं, ये वही तीर्थ है जहाँ से अनेकानेक तीर्थकरों और मुनियों ने आत्मलाभ प्राप्त किया है। यदि इन जीवन्त तीर्थो के प्रति अब भी जागति नहीं आती और तप-संयम से प्राप्त ऊर्जा को मात्र नए-नए तीर्थो की स्थापना में ही लगाते रहे तो कालान्तर मे नवीन स्थापित तीर्थो के प्रति भी कोई उत्सुकता न रहेगी और न प्राचीन तीर्थो की स्थिति। इस प्रकार जीवन्त तीर्थो के