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लोक का स्वरूप, भारतीय दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में
- डॉ. कपूरचन्द जैन
आज जब ग्लोबलाइजेशन, भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण की चर्चायें सर्वत्र चल रही हैं, तब यह जानना आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य हो जाता है कि जिसे हम भूमण्डल, विश्व या ब्रह्माण्ड कह रहे हैं, वह केवल इतना ही है, जितना हम देख रहे हैं या जान रहे हैं और जिसे भूमण्डल विश्व या ब्रह्माण्ड मानकर भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण की बात रह रहे हैं? या इसके आगे भी कोई भूमण्डल, विश्व या ब्रह्माण्ड है?
क्या प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा इस भूमण्डल विश्व या ब्रह्माण्ड का ज्ञान सम्भव है? क्या इस दृश्यमान भूमण्डल के आगे भी कोई भूमण्डल है? क्या इस भूमण्डल के नीचे या ऊपर भी कुछ है? आदि वे प्रश्न हैं जिनका समाधान हमें खोजना है।
जैन दर्शन में जिसे 'लोक' शब्द से अभिहित किया गया है आधुनिक विज्ञान या वैदिकादि परम्परायें उसे ब्रह्माण्ड कहती हैं। पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य-चन्द्र विमान, पर्वत, द्वीप, समुद्र, नदियाँ, देश जनपद आदि सभी 'लोक' के विषय हैं। प्रत्यक्ष होने से पृथ्वी के एक भाग के सम्बन्ध मे तो प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाते हैं। किन्तु स्वर्ग, नरक, सूर्य, चन्द्र आदि के सम्बन्ध में आगम या अनुमान प्रमाण ही मुख्य है। आगम में भी तीर्थकरों, महापुरुषों या योगियों द्वारा साक्षात्कार ही मुख्य है। यद्यपि आज के विज्ञान ने अपनी गवेषणा से अनेक भौगोलिक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयत्न किया हो पर वह अगुष्ठ मात्र ही है। वस्तुत: तो लोक शाश्वत है, वह जैसा है वैसा ही हो, उसमें परिवर्तन सम्भव नही, हम उसे नहीं जान पा रहे यह हमारे ज्ञान की न्यूनता है।