Book Title: Anekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 212
________________ अनेकान्त / ४८ परिणामों ये युक्त आत्मदशा को उपशात कषाय नामक ग्यारहवाँ गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान में आरोहण करने वाला साधक मोहनीय कर्म की सभी २८ प्रकृतियों का पूर्ण उपशम करके अंतमुहूर्त्त काल पर्यत इस स्थिति में रहकर इस अवधि के उपरांत पुन उपर्युक्त कर्म प्रकृतियों के वेग और बलपूर्वक उदय में आने से निश्चित रूप से नीचे के गुणस्थानों में गिर जाता है । उसका गिरना दो प्रकार से होता है- कालक्षय और भवक्षय । जो कालक्षय से गिरता है वह १०-९-८ और सातवे गुणस्थान में क्रम से आता है और जो भवक्षय से गिरता है वह सीधा चौथे में आता है या प्रथम गुणस्थान में भी जा सकता है 1 जिसने क्षीणकषाय- बारहवें स्थान में उसी का आसन लग सकता है, स्वार्थ की रत्ती - २ भस्मीभूत कर डाली। उसका व्यक्तित्व फिर खुद के लिए ही नहीं, अपितु दुनिया के लिए वरदायी बन जाता है। यहाँ व्यक्ति व्यक्ति नहीं रहता, वह महापुरुष बन जाता है । अतर व्यक्तित्व में छिपी ईश्वरीय शक्तियाँ जग जाती हैं। यदि व्यक्ति मे "मै" रहेगा तब तक ईश्वर हममें सोया रहता है। जब मैं-मैं छूट जायेगी तो भीतर का ईश्वर जाग जायेगा। यानी व्यक्तित्व विकास की पूर्णता की देहरी पर कदम रख देगा। यह स्थान हमारे व्यक्तित्व की परिपक्व अवस्था है। यहाॅ खतरा नहीं है, अंतर तृप्ति है, आनन्द का सागर हिलोरे लेने लगता है। ससार पर करुणा की अमृतधारा उससे बरसने लगती है । जिसकी कषाय सर्वथा समूल क्षीण हो गई है, उन्हे क्षीण कषाय कहते हैं । जो क्षीण कषाय होते हुए वीतराग होते है, उन्हें क्षीण कषाय वीतराग कहते हैं । जिस निर्ग्रन्थ का चित्त मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल हो गया है उसको वीतराग देव ने क्षीण कषाय नाम का बारहवां गुणस्थानवर्ती साधक कहा है। जब कोई जीव दसवें गुणस्थान में अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ कषाय

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