Book Title: Anekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 216
________________ अनेकान्त/५२ मे वर्णित द्रव्यार्थिक नय को निश्चयनय और पर्यायार्थिक नय को व्यवहारनय कह सकते है। आचार्यो ने अध्यात्म मे स्थान-स्थान पर निश्चय और व्यवहार इन दो नयों का नाम लेकर प्रयोग किया है। अपेक्षा को स्पष्ट करना उनकी दृष्टि में सर्वत्र उपयोगी रहा है ताकि पाठक को भ्रम अथवा छल न हो। परिभाषायें : निश्चयनय (१) “निश्चिनोति निश्चीयते अनेन वा इति निश्चयः'। जो तत्त्व ___ का परिचय कराता है अथवा जिससे अर्थावधारण किया जाता है या निश्चित किया जाता है, वह निश्चय है। (२) “निश्चयनय एवम्भूत:'-निश्चयनय एवम्भूत है। (श्लोकवार्तिक १-७) (३) “परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चय:'। परमार्थ के विशेषण से सशयादि की रहितता होने से निश्चय है। (प्रवचनसार ता वृ ९३) (४) "अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः” । जो अभेद और अनुपचार से वस्तु का निश्चय कराता है, वह निश्चय है। (आलापपद्धति-९) (५) जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढें अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं ते सुद्धणयं वियाणीहि ।" (समयप्राभृत) - जो आत्मा को अबद्ध. अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष (सामान्य) और असंयुक्त देखता है वह शुद्धनय (शुद्ध निश्चयनय) जानना चाहिए।

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