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अनेकान्त/३४ ___ लोक के स्वरूप पर सभी धर्मो ने अपनी-अपनी दृष्टि से विचार किया है। श्रमण और वैदिक दानों परम्पराओ ने इस पर विस्तृत गवेषणा की है। श्रमण परम्परा की जैन और बौद्ध दोनो धाराओं में पर्याप्त साहित्य इस सम्बन्ध मे मिलता है। जैन परम्परा में प्रथमानुयोग' (पौराणिक या कथात्मक साहित्य) मे इसकी चर्चा आई है। साथ ही करणानयोग' के ग्रन्थ तो विस्तृत रूप मे लोकस्वरूप की चर्चा के लिए लिखे गये है। 'त्रिलोकसार', 'तिलोयपण्णत्ती'. जम्बूद्वीप पण्णत्ती' आदि ग्रन्थ तो नामानुरूप लोक-स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ही लिखे गये हैं। ___ आकाश के जितने भाग मे जीव, पुद्गल आदि छह द्रव्य देखे जाते है उसे लोक कहते हैं। उसके चारों तरफ जो अनन्त आकाश है उसे अलोक कहते है। इस प्रकार सृष्टि लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो रूपो मे बट जाती है। राजवार्तिक के अनुसार जहाँ पुण्य व पाप का फल देखा जाय वह लोक है। ___ जैन दर्शन के अनुसार प्रतीक रूप में लोक का आकार दोनो पैर फैलाकर कमर पर हाथ रखकर खडे हुए पुरुष के समान है। यह घनोदधि, घनवात और तनुवात इन तीन वातवलयों से घिरा है। इसके कारण यह तीन रस्सियो से घिरे हुए छीके के समान प्रतीत होता है। अलोकाकाश के बीच मे लोकाकाश की स्थिति के सन्दर्भ मे शका नहीं करनी चाहिए क्योंकि आज के उपग्रह जिस प्रकार वायु के द्वारा आकाश मे स्थिर हैं. उसी प्रकार लोक भी वातवलयों के सहारे स्थित है। ___ लोक के तीन विभाग हैं। अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । अधोलोक में नरक, निगोद आदि हैं। मध्यलोक में यह पृथ्वी है और ऊर्ध्वलोक मे स्वर्ग अनुत्तर. अनुदिश. सिद्धशिला आदि हैं। ___ लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजू है। इसका विस्तार लोक के नीचे सात राजू मध्यलोक में एक राजू ब्रह्म स्वर्ग पर पांच राजू और लोक के अन्त में एक राजू है। सम्पूर्ण लोक की ऊँचाई चौदह राजू है।"