________________
अनेकान्त/१६
कसता है, यदि युक्ति की कसौटी पर कोई बात खरी नहीं उतरती तो सम्यग्दृष्टि उसे नहीं मानता है । समन्तभद्र जैसे परीक्षा - प्रधानी, जिन्होंने आप्त की भी परीक्षा कर युक्ति शास्त्राविरोधिवाक् सर्वज्ञ की ही मान्यता को स्वीकार किया, के अनुयायी तथा उनकी टीका प्रटीकाओं का प्रतिदिन स्वाध्याय करने वाले श्रावक - जन गुरु-परम्परा की दुहाई देकर यदि शासन देवताओं की पूजा का उपदेश दे, तो बडा आश्चर्य होता है । क्या उनके गुरु का स्थान आचार्य समन्तभद्र नहीं ले सकते?
जैन धर्म आत्मप्रधानी धर्म है । कर्मशास्त्रीय ग्रन्थों का भी अभिप्राय आत्मा की सकलक स्थिति तथा उसकी अवस्थाओ को बतलाकर अकलंकपने की स्थिति को प्राप्त करने का उपदेश देना है। आज स्थिति यह हो गई है कि जहाँ एक पक्ष शुद्धात्मा की बात कहकर आत्मा की अशुद्ध स्थिति से छुटकारा पाने हेतु तप संयम वगैरह की स्थिति और मर्यादा को स्वीकार नहीं करता, वहीं दूसरा पक्ष आत्मा की बात स्वीकार नहीं करता । एक स्थान पर मैं गया तो वहा के कुछ लोग बोले कि आप अच्छे आ गए, यहाँ की जनता, जिन पडित जी ने पिछले दिन प्रवचन किया था, से कुछ नाराज हो गई है। मैंने पूछा- उन्होंने अपने प्रवचन में कौन सी ऐसी बात कह दी, जिससे लोग नाराज हो गए। उत्तर में उन्होने कहा कि उन पण्डित जी ने पहले ही दिन. "हॅू स्वतन्त्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता दृष्टा आतम राम' वाला पद्य सब लोगो के सामने पढ दिया । मैंने कहा कि आत्मा के ज्ञाता दृष्टा स्वभाव की जिसमे चर्चा की गई है, उसमे बुराई मानने की बात कहाँ से आ गई। इस पर उन्होने उत्तर दिया कि यहाँ की जनता ज्ञाता दृष्टापने की बात सुनते-सुनते ऊब गई है, अत ऐसी बात सुनना पसन्द नही करती। मुझे उनकी बात सुनकर आज की समाज की स्थिति पर तरस आ गया, जो वीतरागी परमात्मा की उपासक होते हुए भी, उसके ज्ञाता दृष्टा स्वभाव और उस जैसा बनने की बात सुनना पसन्द नही करती। दूसरी ओर 'वीतराग वाणी पत्रिका मे मुझे यह भी पढने को मिला कि एक गाव मे पूज्य दिगम्बर जैन मुनिराज के पहुँचने पर वहाँ के तथाकथित आत्मार्थी बन्धुओ ने समाज के लोगो पर यह दबाव डाला कि उन मुनि महाराज को कोई आहार न दे, फल यह